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परिशिष्ट-2
इस्लाम पर अहिंसा का प्रभाव
भारत सदाकाल से अहिंसा, शाकाहार, समन्वय और सदाचार का हिमायती रहा है, उसकी कोशिश रही है कि सभी जीव सुख से रहें । 'जिओ और जीने दो' – जैनधर्म का मूलमंत्र है। जैनधर्म ने अपने इस उदारवादी सिद्धान्तों से मुल्क के तथा विदेशी मुल्कों के हर मजहब और तबके को प्रभावित किया है। इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'विश्व वाणी' के यशस्वी सम्पादक पूर्व राज्यपाल तथा इतिहास विशेषज्ञ डॉ. विशम्बरनाथ पाण्डेय ने अपने एक निबन्ध अहिंसक परम्परा" में इस बात का जिक्र किया है। वे लिखते हैं कि 'इस समय जो ऐतिहासिक उल्लेख उपलब्ध हैं, उनसे यह स्पष्ट है कि ईसवी सन् की पहली शतब्दी में और उसके बाद के 1000 वर्षों तक जैनधर्म मध्य-पूर्व के देशों में किसी न किसी रूप में यहूदी, ईसाई तथा इस्लाम को प्रभावित करता रहा है।
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प्रसिद्ध जर्मन इतिहास लेखक वान क्रेमर के अनुसार 'मध्य-पूर्व' में प्रचलित 'समानिया' सम्प्रदाय 'श्रमण' शब्द का अपभ्रंश है इतिहास लेखक जी.एफ. मूर के अनुसार 'हजरत' ईसा की जन्म शताब्दी से पूर्व इराक, शाम और फिलिस्तीन में जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु सैकड़ों की संख्या में चारों तरफ फैले हुए थे। पश्चिमी एशिया, मिस्र, यूनान और इथियोपिया के पहाड़ों और जङ्गलों में उन दिनों अगणित भारतीय साधु रहते थे जो अपने त्याग और अपनी विद्या के लिए मशहूर थे, ये साधु वस्त्रों तक का त्याग किये हुये थे।' अर्थात् वे दिगम्बर थे।
'सियाहत नामए नासिर' का लेखक लिखता है कि इस्लाम धर्म के कलन्दरी तबके पर जैन धर्म का काफी प्रभाव पड़ा था। कलन्दरों की जमात
हुकुमचन्द अभिनन्दन ग्रंथ, पृ. 372 से 376
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