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अहिंसा दर्शन
अर्थात् जो जीवित को मुर्दा कर देता है और मुर्दे को खाते हैं वे सभी मुर्दे जैसे ही हो जायेंगे।
भारतीय विचारधारा का प्रभाव सिर्फ भारत तक सीमित नहीं रहा बल्कि यह विदेशों में भी पड़ा। ईरान में शुद्ध शाकाहारी कलन्दर सम्प्रदाय के एक संत ने फारसी भाषा में एक पद्य लिखा है जिसमें बलि पर चढ़ते हुये बकरे का बयान अभिव्यक्त हुआ है
शुणीदा अम कि कस्साब गोसफन्दे गुप्त। दारं जमां का गिलुयश-व-तेग तेज बुरीद।। सजाए हर खास्व-ओ खरे कि खुरद दादं। कंसे कि पहलुए चखं खुरद ने खरीदु।
अर्थात् एक बार मैंने सुना कि बकरे की गरदन पर जब कसाई ने तेज़ छुरी चलाना चाहा तो बकरे ने उससे कहा कि भाई मैं तो देख रहा हूँ कि हरी घास और हरे पौधे खाने की सज़ा मुझे मिल रही है और मेरी गरदन काटी जा रही है। अब कस्वाव भाई, ज़रा सोचो तो उस व्यक्ति का क्या हाल होगा, जो मेरा माँस खायेगा?
इसी प्रकार और भी अनेक पद्य हैं जिनमें अहिंसा शाकाहार का सन्देश कवियों ने जनता जनार्दन को दिया। जैन तीर्थंकरों और जैनाचार्यों की वाणी का प्रभाव इन कवियों पर स्पष्ट देखा जा सकता है। यह बात भी सही है कि शाकाहार के पालन के सन्दर्भ में जितनी दृढ़ता जैनधर्म के अनुयायियों ने दिखलायी उतनी अन्य ने नहीं दिखलायी। मानवीय मूल्यों की रक्षा करने में जैनधर्म और उसकी आचार पद्धति का अप्रतिम योगदान मानव जाति के ऊपर रहा है यह बात कवियों के इन दोहों में भी प्रतिबिम्बित होती है।
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परमपुरुषार्थ अहिंसा, पृष्ठ 40