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अहिंसा : श्रद्धा और तर्क
जह ते न पिअं दुक्खं, जाणिअ एमेव सव्वजीवाणं'
'जो दु:ख मुझे प्रिय नहीं है, वही दुःख दूसरे जीवों को भी प्रिय नहीं है'-बस इतना सा तर्क है। जो यह समझ ले वह तो धर्म को समझ सकता है, शास्त्र को समझ सकता है, जीवन के रहस्य को समझ सकता है। इस लोक में भी सुखी हो सकता है और पर लोक में भी। मुक्त भी यही हो सकता है।
सभी जीवों को अपने समान समझना कोई आसान बात नहीं है, ऐसा विरले ही कर पाते हैं, जो कर लेते हैं वे ही अहिंसक हैं, वे ही पण्डित हैं, ज्ञानी हैं। शास्त्रों में कहा है
'आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः'
अहिंसा सभी आत्माओं का स्वभाव है, विभाव नहीं। हिंसा विभाव है। अपने स्वभाव को छोड़कर विभाव परिणति में रहने वाला जीव कभी न खुद सुख प्राप्त कर सकता है न दूसरों को पहुँचा सकता है। इसमलिए आत्मा ही अहिंसा है
'अत्ता चेव अहिंसा
अहिंसा को धारण करने वाला जीव ही इस मायावी संसार में रहकर भी उससे निर्लिप्त उसी प्रकार रह सकता है जैसे जल में कमल रहता है। कमल जल में भी रहता है ओर जल से भिन्न भी रहता है
'कमलममिव निरूपलेपत्वप्रसिद्धरहिंसक एव स्यात् तभी तो ऋग्वेद के ऋषि कहते हैं। 'अहिंसक मित्र का प्रिय सुख हमें घर पर प्राप्त हो।' समणसुत्तं, गाथा-150 जयधवला- आचार्य वीरसेन, भाग-1, पृ. 34 प्रवचनसार-आचार्यकुन्दकुन्द, गाथा-18 पर टीका ऋग्वंद 5/64/3
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