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दशम अध्याय
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यद्यपि पाश्चात्य मनोविज्ञानी इस तथ्य को आंशिक रूप से ही जान पाये हैं, परन्तु भारतीय तत्त्वदर्शी ऋषि-मुनियों ने इस बात को बहुत पहले ही अच्छी तरह जान लिया था कि हमारा मन अन्न या आहार का सूक्ष्म संस्कार है। इसलिए उन्होंने आहार की सात्विकता पर बहुत जोर दिया है। उसके अनुसार मनुष्य के आहार का जो गुण होगा, उसके मन में भी वैसे ही गुणों का, विचारों का जन्म होगा और जैसे लोगों के विचार होंगे, आचरण भी वैसे ही होंगे। इस वैज्ञानिक तथ्य की समग्र जानकारी के बाद ही स्वच्छ सात्विक आहार ग्रहण करने की आवश्यकता का प्रतिपादन किया गया था और भोजन व्यवस्था को अनेक कड़े नियमों से प्रतिबन्धित कर दिया गया था।
आहार का अनुसन्धान
भोजन की स्वच्छता, सादगी, सफाई और उसे भावनापूर्वक ग्रहण करने की भारतीय प्रणाली केवल मनोवैज्ञानिक ही नहीं थी, वरन् वह विचारविज्ञान की गहन कसौटी पर कसी हुई थी। यदि मानव के निर्माण में उसकी प्रवृत्तियों के बनने में भोजन का कोई प्रभाव न होता तो मनीषीजन उसकी खोज, गुण-अवगुण की उपयोगिता एवं अनुपयोगिता पर इतना गहन अन्वेषण न करते और हमारे उन प्राचीन पिप्पलादि ऋषि, कणाद् ऋषि जैसे महामनीषियों को प्राकृतिक शाकाहार से अपनी क्षुधा को शान्त करने की विवशता न रही होती।
आहार का मानवीय मनोवृत्तियों पर पड़ने वाले प्रभाव पर अनुसंधानरत चिकित्सा-विज्ञानियों ने निष्कर्ष निकाला है कि मांसाहार से मनुष्य की मनोवृत्तियाँ क्रूर, दुस्साहसी, निर्दय और निष्ठुर बन जाती हैं। इन दुर्गुणों की अभिवृद्धि से समाज भी निश्चित रूप से प्रभावित होता है। जो व्यक्ति मांस के टुकड़ों के लिए जीवों पर दया नहीं कर सकता, वह अपने पत्नी बच्चों के प्रति कितना दयालु होगा, कहा नहीं जा सकता। ऐसी भी परिस्थितियाँ आ सकती हैं जब अन्न न मिले और तब मांसभक्षी व्यक्ति सजातियों को ही अपना ग्रास बनाने लगे, तो आश्चर्य किस बात का? एक बार अखबार में एक चित्र प्रकाशित हुआ था जिसमें विदेश के किसी पंच सितारा होटल का