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अहिंसा दर्शन
नयी खोजों के अनुसार वानर-पुरखों के जो जीवाश्म (फॉसिल्स) मिले हैं, उनसे सिद्ध हुआ है कि 45 लाख वर्ष पूर्व मानव-वंशज भी फलाहारी था।
हमारे ग्रह पर आज से 3 अरब 50 करोड़ वर्ष पूर्व जीवन की शुरुआत हुई थी। जीवनधारियों का पूर्वज डायनासोर, जो आज से 10 करोड़ वर्ष पूर्व इस ग्रह पर अस्तित्व में था, पूर्ण शाकाहारी (तृण-भोजी) था। इस भीमकाय जीवधारी के जीवाश्म उपलब्ध हैं।
इस प्रकार शाकाहार अहिंसा-करुणामूलक नीति-विज्ञान समस्त जीवन-पद्धति है-एक ऐसी जीवन-पद्धति जो अनुपालक को निर्विघ्न प्रसन्न रखते हुए उसके समकालीन जीवधारियों को भी निष्कण्टक आवास जीवन पाने का अवसर प्रदान करती है। शाकाहार मात्र शरीर को ही स्वस्थ्य नहीं रखता, अपितु आत्मा को भी स्वस्थ्य एवं ऊर्ध्वगामी रखता है। मांसाहार मानवता के विरुद्ध है
मनुष्य समाज को गिराने वाली अनेकों दुष्प्रवृत्तियाँ हैं, परन्तु मांसाहार उनमें से सबसे अधिक घृणित है। इससे मनुष्य में निष्ठुरता, क्रूरता, निर्दयता, स्वार्थ-साधन आदि समाज विरोधी प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि होती है। करुणा, दया, क्षमा, संवेदना, सहानुभूति तथा सौहार्द्र जैसे आध्यात्मिक गुण नष्ट हो जाते हैं और ऐसे व्यक्ति अपने स्वाद, स्वास्थ्य एवं स्वार्थ के लिए बड़े से बड़ा अपराध करने में भी संकोच नहीं करते। जिस समाज में ऐसे अनात्मवादी व्यक्ति विद्यमान हों, उसमें मानवता के गुणों की अभिवृद्धि की आशा कैसे की जा सकती है?
समाज-मनोविज्ञानियों का कहना है कि मांस-भोजन मानवता की स्थापना एवं स्थिरता के लिए बहुत बड़ी बाधा है। यह सब जानते हैं कि एक सुखी समाज के लिए स्वस्थ्य गुणों के नागरिकों का होना कितना आवश्यक है। व्यक्ति का सद्गुणी होना उसके आन्तरिक सदाचार पर निर्भर है, अर्थात् सभ्य समाज की रचना तभी हो सकती है जब लोगों के मन स्वच्छ हों।