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अहिंसा दर्शन
किया और विश्व शान्ति का सन्देश दिया। उन्होंने शिकागो में आयोजित विश्वधर्म सम्मेलन में भारतीय अध्यात्म को लेकर एक ओजस्वी वक्तव्य दिया था, वह आज भी प्रसिद्ध है। विदेशों में भारत के आध्यात्मिक ज्ञानविज्ञान की जड़ें मजबूत करने में स्वामी विवेकानन्द का महत्त्वपूर्ण योगदान
प्रमाद या आसक्ति को हिंसा कहा गया है। स्वामी विवेकानन्द ने इसे अलग दृष्टि से व्याख्यायित किया। विशेषरूप से जब भारतीय नवयुवकों को आलसी, दुर्बल और कामचोर देखते थे, तब उनका खून खौल उठता था। उनका यह सन्देश बहुत प्रसिद्ध है - 'उठो, जागो और जब तक तुम अपने
अन्तिम ध्येय तक नहीं पहुँच जाओ, तब तक चैन न लो। उठो, जागो... निर्बलता के उस व्यामोह से जाग जाओ। वास्तव में कोई भी दुर्बल नहीं है। आत्मा, अनन्त सर्वशक्ति सम्पन्न और सर्वज्ञ है। इसलिए उठो, अपने वास्तविक स्वरूप को प्रकट करो। तुम्हारे अन्दर जो भगवान है, उसकी सत्ता को ऊँचे स्वर में घोषित करो; उसे अस्वीकार मत करो। हमारी जाति के ऊपर घोर आलस्य, दुर्बलता और व्यामोह छाया हुआ है।"
अहिंसा-हिंसा को लेकर विवेकानन्द बहुत चिन्तित नहीं दिखायी देते थे। उनका विचार था कि यदि अहङ्कार दूर होता है, अनासक्ति प्रगट होती है और आत्मा शुद्ध बनती है तो अहिंसा के उपदेश की जरूरत नहीं है। यह आध्यात्मिक दृष्टिकोण है किन्तु व्यावहारिकरूप में वे अहिंसा के प्रति बहुत स्पष्ट अवधारणा रखते हैं। उनका कहना है - 'अहिंसा ठीक है, निश्चय ही बड़ी बात है। कहने में बात तो अच्छी है, पर शास्त्र कहते हैं कि यदि तुम गृहस्थ हो, तुम्हारे गाल पर यदि कोई एक थप्पड़ मारे और यदि उसका जबाव तुम दस थप्पड़ों से न दो तो तुम पाप करते हो!
इस प्रकार वे गृहस्थ को विरोधी हिंसा का अधिकारी मानते थे। उन दिनों हमारा देश, अंग्रेजों का गुलाम था। अंग्रेज भारतीयों को मारते थे; 1. विवेकानन्द साहित्य, V/89 2. विवेकानन्द साहित्य, X/51