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'इनको क्यों गिराया?'
'महाराज! ये सीधे घोड़े पर चढ़ गये। सीधा चढ़ेगा तो गिरायेगा। पहले अपना बनाओ, फिर चढ़ो, त कोई नहीं गिरायेगा। अपना तो बनाया नहीं और सीधे तपाक से ऊपर चढ़ गये तो वह और क्या करेगा? पिताश्री! मैंने तीन-चार दिन तक घोड़ों को खूब सहलाया, प्रेम किया, अपना बना लिया फिर ऊपर चढ़ा। घोड़े ने मुझे बहुत सम्मान दिया, मेरे हर निर्देश का पालन किया।'
कितनी मर्म की बात है सत्य को अपना बनाओ। जब तक अपना नहीं बनाओगे तब तक तुम्हारे लिए बहुत उपयोगी नहीं बनेगा। सत्य अपना कब हो सकता है? जब हम इंद्रिय चेतना से थोड़ा ऊपर उठ जाएं, इष्ट और अनिष्ट की भावना से ऊपर उठ जाएं तब सत्य अपना बनता है। इष्ट क्या है? अनिष्ट क्या है? प्रिय क्या है? अप्रिय क्या है? जब तक यही चिन्तन का चक्र चलता है, उससे ऊपर उठा नहीं जाता, तब तक सत्य नहीं मिलता। सारा संसार इष्ट और अनिष्ट का संसार है। इष्ट मिलता है, बड़ा हर्ष होता है। अनिष्ट मिलता है, बड़ा दुःख होता है। इष्ट का वियोग होता है तो बड़ा दुःख होता है। अनिष्ट का वियोग होता है तो सुख होता है। यह सारा आर्तध्यान का चक्र चल रहा है।
केरला से चले तीनों विमान कुरलाचल पर रुके। राजा रत्नचूल, राजा मृगांक, विद्याधर व्योमगति के साथ जम्बूकुमार नीचे उतरा। ___ व्योमगति और जम्बूकुमार के कदम सम्राट श्रेणिक की ओर बढ़े। जम्बूकुमार और व्योमगति को देख सम्राट श्रेणिक का मुख हर्ष से विकस्वर हो गया। वह अपने आसन से खड़ा हुआ। जम्बूकुमार और व्योमगति के सामने गया, सम्मान किया।
गाथा
परम विजय की श्रेणिकोऽपि ततस्तूर्णं, समुत्थाय निजासनात्।
आलिलिंग कुमारं तमुत्सुकः परमादरात्।। सम्राट् श्रेणिक सबसे पहले जम्बूकुमार से मिला। जम्बूकुमार ने विनत भाव से प्रणाम किया। श्रेणिक ने उसे भावविभोर होकर गले लगाया। श्रेणिक बोला-'जम्बूकुमार! तुम्हें देखकर मेरा मन प्रसन्न हो गया। मुझे बड़ा हर्ष है कि तुम सकुशल आ गये। बोलो, कैसा रहा प्रवास?'
साधु साधु मया दृष्टो, यच्चिरादपि भो भवन्!
___ त्वयि दृष्टे महान् हर्षों, जातो मे हृदि संप्रति।। जम्बूकुमार बोला-'सम्राट! मैं क्या कहूं? ये सब आपको सब कुछ बताने और धन्यवाद देने के लिए ही आए हैं।'
व्योमगति आगे आया, उसने कहा-'मेरा नाम व्योमगति है। मुझे आप पहचान गये। मैं आपकी सभा में आया था। कुमार को विमान में बिठाकर ले गया था। मेरा परिचय तो आपको ज्ञात है।'
श्रेणिक बोला-'हां, व्योमगति! मैं आपको देखते ही पहचान गया।' 'सम्राट! मैं सबसे पहले आपको आगंतुकों का परिचय करवाना चाहता हूं।'
जम्बकुमार की ओर इशारा करते हुए व्योमगति ने कहा-'यह आपके नगर का नागरिक है। इनका जो परिचय आप जानते हैं, वह देने की मुझे कोई जरूरत नहीं। जो परिचय ज्ञात नहीं है, वह मैं बाद में दंगा।'
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