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गाथा परम विजय की
जन्मते ही बीमार । दो-चार वर्ष जीया और एक दिन मरने की तैयारी कर ली। मरते समय बोला- 'अब मैं जा रहा हूं। मैंने अपना बदला ले लिया है। तुमने मेरे पचास हजार रुपये अपने अधिकार में ले लिये थे। वह पचास हजार रुपया पूरा हो गया। बदला चुक गया। अब मैं जा रहा हूं।'
ऐसी न जाने कितनी घटनाएं आती हैं। कोई पिशाच, भूत अथवा प्रेत बनकर किसी को सताता है। पूछने पर वह कहता है-'मैं पूर्वजन्म का बदला ले रहा हूं।'
बदला लिया जाता है। यह वैर की परम्परा समाप्त नहीं होती। जो समझदार आदमी होता है वह वैर को शांत कर देता है। जम्बूकुमार ने सोचा- वैर को शान्त कर देना चाहिए, शान्ति का संदेश देना चाहिए।
दूसरा महायुद्ध पूरा हुआ। वह बड़ा भयंकर युद्ध था । कितना विकराल था, कितनी विकट स्थितियां थीं। जिन्होंने देखा है उस समय को, वे जानते हैं कि किस प्रकार की स्थितियां बनी थीं। पूज्य गुरुदेव ने उस समय एक संदेश दिया- 'अशांत विश्व को शांति का संदेश'। वह ब्रिटिश सरकार और संबद्ध लोगों के पास पहुंचा। संदेश बहुत अच्छा लगा। अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी ने उसे अपने पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर लिया। महात्मा गांधी ने उस संदेश पर अपनी टिप्पणी लिखी-'कितना अच्छा होता कि इस महापुरुष द्वारा सुझाये गये इन नौ नियमों का विश्व पालन करता।'
अशांति के समय कोई शांति का संदेश देने वाला होता है तो शांति का पथ प्रशस्त होता है। जम्बूकुमार ने सोचा-अब मैं इस दावानल के बीच नहीं रहना चाहता, किंतु जाते-जाते मुझे एक काम कर देना चाहिए, इन दोनों का वैर मिटा देना चाहिए।
जम्बूकुमार ने संकल्प किया—मृगांक और रत्नचूल दोनों में वैर-विरोध समाप्त कर, मैत्री स्थापित करनी है।
इस संकल्प के साथ एक ओर जम्बूकुमार मैत्री स्थापना का अभिक्रम शुरू कर रहा है, दूसरी ओर सम्राट् श्रेणिक की खोज की बात चल रही है।
क्या सफल होगा मैत्री स्थापना का प्रयत्न ? और कब मिलेंगे सम्राट् श्रेणिक ?
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