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आचार्यश्री 'धनंजयजी की सेवाएं केवल साहित्य से जुड़ी हुई नहीं हैं। इनकी सेवाएं सर्वतोमुखी हैं। इनके लिए बहुत कुछ किया जा सकता है....कुछ भी किया जा सकता है।' मुख्य नियोजिकाजी (मेरी ओर अभिमुख होकर)-मुनिश्री! गुरुदेव के ये शब्द केवल सुनने के नहीं हैं, नोट करने के हैं। किसी सौभाग्यशाली शिष्य को ही ऐसा आशीर्वाद और अनुग्रह मिलता है।' मैं विनत-प्रणत स्वर में बोला-'मैं जो कुछ हूं या मैंने जो कुछ पाया है, वह सब गुरुदेव का है। मैंने स्वयं को गुरुदेव से भिन्न कभी माना ही नहीं।' आचार्यश्री ने मेरे कथन पर टिप्पणी करते हुए कहा-'हां, ये सदा समर्पित और एकरूप रहे हैं।' पूज्य गुरुदेव के ये शब्द मेरे जीवन की अमूल्य निधि हैं। प्रस्तुत ग्रंथ की किश्तों को सुनते हुए आचार्यवर ने अनेक बार वर्धापित,
पुरस्कृत और उपकृत किया। सृजन का ऐसा अवसर भी मिला, जिसकी मैंने कभी कल्पना ही नहीं की थी। • प्रस्तुत ग्रंथ की बीसवीं किश्त छपते-छपते ज्ञात हुआ-पूज्य गुरुदेव के प्रवचन के दो कैसेट उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं। मैंने गुरुदेव से
वस्तुस्थिति निवेदित की। गुरुदेव का प्रश्न था अब कैसे होगा? मैंने कहा-'गुरुदेव! दो किश्तें लिखवा दें अथवा प्रवचन करा दें।' गुरुदेव-'अभी तो यह संभव नहीं लगता।' मुनि धनंजय-लेकिन इन दो किश्तों के बिना तो अधूरापन लगेगा।' आचार्यवर-'फिर तुम क्या करोगे?' मुनि धनंजय-'क्या मैं उन्हें लिख कर निवेदित कर दूं?' आचार्यवर–'हां, यह हो सकता है।' आचार्यवर के इंगित को शिरोधार्य कर मैंने वे दो किश्तें लिखीं। आचार्यवर के साहित्य के साथ इस रूप में जुड़ने का यह मेरे जीवन का अद्वितीय प्रसंग है। आचार्यवर ने उन किश्तों को अवधानपूर्वक पढ़ा। उसी रूप में प्रकाशन की स्वीकृति प्रदान करते हुए आचार्यवर ने जिन शब्दों में मुझे आशीर्वाद प्रदान किया, उन्हें मैं जीवन के लिए वरदान तुल्य मानता हूं। वह वरदायी आशीर्वाद, जो केवल अनुभूति
का विषय है, जीवन का सतत सहचर बना रहे। • 'गाथा परम विजय की' बहुश्रुत आचार्यश्री महाप्रज्ञ की जागृत प्रज्ञा का एक और जीवन्त प्रमाण है। इसमें दर्शन शास्त्र, स्वास्थ्य
शास्त्र, धर्मशास्त्र, अध्यात्म विद्या, योग, मनोविज्ञान आदि की आसेवनीय सामग्री इतनी सरसता-सहजता के साथ परोसी गई है कि वह पाठक के अंतस्तल को प्रीणित और तृप्त कर दे, जीवन के परम लक्ष्य के साथ जोड़ दे। • हमने यह सोचा था-आचार्यवर अपनी इस अपूर्व कृति का स्वयं लोकार्पण करेंगे किन्तु नियति को यह मान्य नहीं था और नियति के
आगे किसका वश चलता है? परम श्रद्धेय आचार्यश्री महाश्रमण आचार्यश्री महाप्रज्ञ के यशस्वी उत्तराधिकारी हैं। आचार्यश्री महाप्रज्ञ द्वारा निर्दिष्ट कार्यों के क्रियान्वयन में पूज्यप्रवर का मंगल आशीर्वाद और दिशा-दर्शन हमें प्राप्त है। • यह सुखद संयोग भी मेरे लिए प्रसन्नता का विषय है-मैं पचासवें वर्ष-प्रवेश (मृगसर शुक्ला पूर्णिमा, २१ दिसंबर २०१०) के दिन प्रस्तुत ग्रंथ आराध्य के श्रीचरणों में समर्पित कर रहा हूं। और इस संकल्प के साथ कर रहा हूं-परम विजय की उपलब्धि मेरे जीवन का ध्येय बना रहेगा। २१ दिसंबर, २०१०
मुनि धनंजयकुमार नोखा