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यद्यपि जंबू स्वामी चरित्र के संदर्भ में श्वेतांबर - दिगंबर परंपरा में अनेक स्थलों पर मतान्तर है
जंबू कुमार के माता-पिता के नाम भिन्न हैं। दिगंबर परंपरा में चार तथा श्वेतांबर परंपरा में आठ कन्याओं से विवाह का उल्लेख है। हस्ति - विजय और विद्याधर - विजय का श्वेतांबर परंपरा में उल्लेख नहीं मिलता।
जहां श्वेतांबर परंपरा मौन है, वहां आचार्यश्री ने दिगंबर परंपरा में मान्य तथ्यों को भी प्रवचन का विषय बनाया। फलतः जंबू चरित्र एक अभिनव रूप में जनता के सामने आ रहा है।
• आचार्य श्री महाप्रज्ञ का जंबू चरित्र पर आदि प्रवचन १० मार्च १९९६ तथा अंतिम प्रवचन ३ जून १९९६ को हुआ । १२ वर्ष तक वे प्रवचन कैसेटों में सुरक्षित रहे। प्राचीन अनुश्रुति है - आम बारह वर्ष में फलता है। सन् २००६ में इस प्रवचन श्रृंखला के संपादन का संकल्प प्रस्फुटित हुआ।
जून २००६
प्रथम सप्ताह में मैंने पहला प्रवचन संपादित किया । त्वरित संपादन में निमित्त बना तेरापंथ टाइम्स । मुनि योगेश कुमार जी और मर्यादा कोठारी का अनुरोध रहा - आचार्यवर की कोई धारावाहिक प्रवचन शृंखला तेरापंथ टाइम्स में प्रकाशित हो । आचार्यवर ने इस अनुरोध को स्वीकार किया। 'गाथा परम विजय की' इस शीर्षक से तेरापंथ टाइम्स (६-१२ जुलाई २००९ ) के अंक में पहली किश्त प्रकाशित हुई। मैंने आचार्यवर से निवेदन किया- 'आचार्यवर! आपकी कृतियों को हजारों-हजारों प्रबुद्ध लोग पढ़ते हैं, उनसे दिशा, दृष्टि और समाधान प्राप्त करते हैं। कभी-कभी आपको भी अपनी कृतियों को पढ़ना चाहिए।' आचार्यवर ने मुस्कराते हुए पूछा—'मैं अपनी कृति क्यों पढूं?’
‘आचार्यवर! आपके विचार निर्विचार स्थिति में प्रकट होते हैं। आप कभी-कभी अपने विचारों को इस दृष्टि से पढ़ें कि निर्विचार से कैसे विचार उद्भूत हुए हैं? निवेदन का दूसरा कारण यह है- आपश्री का प्रवचन साहित्य बन जाता है। हम उस वाङ्गमय को किस रूप में संपादित करते हैं? आपश्री की समीक्षात्मक दृष्टि हमारे लिए दिशा दर्शक बन सकेगी।'
दूसरा दिन। मध्याह्न का समय। आचार्यवर ने मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुतविभाजी से कहा- आज 'गाथा परम विजय की' सुनना है। साध्वीश्री ने तेरापंथ टाइम्स में प्रकाशित पूरी किश्त पढ़ी। पूज्य गुरुदेव अवधान पूर्वक सुनते रहे। यत्र-तत्र समीक्षात्मक टिप्पणी भी करते रहे। उसके पश्चात् यह नियमित क्रम सा बन गया। आचार्यवर प्रत्येक नई किश्त सुनते और अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त करते। आचार्यवर की समीक्षात्मक प्रतिक्रिया से हमें आत्मतोष और संबोध - दोनों मिलते।
• 'गाथा परम विजय की' धारावाहिक के श्रवण-काल ने अनेक अविस्मरणीय संस्मरणों को भी जन्म दिया। मैं केवल एक संस्मरण को अंकित करना चाहता हूं।
उस दिन शनिवार था। मेरे आयंबिल तप था। आचार्यवर को मुख्य नियोजिका जी ने 'गाथा परम विजय की' की सद्यः प्रकाशित किश्त सुनाई। आचार्यश्री ने पूछा—'तुम इसके संपादन में कितना समय लगाते हो।'
मैंने कहा- 'वर्तमान में सप्ताह का क्रम प्रायः निश्चित है-दो दिन विज्ञप्ति लेखन में, दो दिन 'गाथा परम विजय की' के संपादन में, दो दिन
कुछ संदेश आदि के लिए। शनिवार के दिन आयंबिल तप रहता है। उस दिन प्रायः इन कार्यों से मुक्त रहने का प्रयास करता हूं।'
मुख्य नियोजिकाजी- 'मुनिश्री ! आप आयंबिल क्यों करते हैं?'
मुनि धनंजय–‘सप्ताह में एक दिन सहज तप हो जाता है। इससे विगय-वर्जन आदि की जो संघीय विधि है उसका अनुपालन होता है।
लंघन स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा है। शरीर में हलकापन और मन में प्रसन्नता रहती है। '
मुख्य नियोजिकाजी (आचार्यश्री की ओर अभिमुख होकर) - गुरुदेव ! आप विगय-वर्जन की बख्शीश करा सकते हैं?'
आचार्यश्री (मुस्कराकर)——विगय-वर्जन की बख्शीश बहुत छोटी बात है।'
मुख्य नियोजिका जी (विस्फारित नेत्रों से ) - 'क्या विगय - वर्जन की बख्शीश छोटी बात है?'
आचार्यश्री- 'हां, इनके लिए बहुत छोटी बात है।'
मुख्य नियोजिका जी - 'गुरुदेव ! कैसे है यह छोटी बात ?'