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गाथा परम विजय की
व्योमगति विद्याधर बोला-'राजन्! अगर आपको शांति से जीना है तो इस कुमार के साथ प्रीति करो। इसको अपना बनाओ, इसके साथ प्रेम बढ़ाओ तो आप शांति से रह सकेंगे। आपको कोई खतरा नहीं रहेगा। अगर ऐसा नहीं किया तो हो सकता है कि रत्नचूल अथवा उसके वंशज कभी बाद में भी आप पर आक्रमण कर दें।'
व्योमगतिश्च सानंदात्, कारयामास तत्क्षणम्।
प्रीतिवर्धनमत्यंतं, जम्बूस्वामिमृगांकयोः।। व्योमगति ने राजा मृगांक और जम्बूकुमार में प्रीति संबंध जुड़ाया। राजनीति में यह कहा भी जाता है-न कोपि कस्यचिद् मित्रं, न कोऽपि कस्यचिद् रिपुः-न कोई किसी का मित्र होता है और न कोई किसी का शत्रु। जब जैसा अवसर होता है, व्यक्ति वैसा बन जाता है। अवसर होता है तो भयंकर विरोधी भी मित्र बन जाता है। __ दूसरा महायुद्ध हुआ। उसमें एक ओर मित्रसेना थी दूसरी ओर जर्मन-रूस की सेना थी। रूस और जर्मनी में प्रगाढ़ संबंध था। मित्र सेना में अमेरिका, ब्रिटेन आदि थे किंतु ऐसा कोई चक्र चलाया कि जर्मनी
और रूस, जो साथ लड़ रहे थे, परस्पर विरोधी बन गये। जर्मनी ने रूस पर आक्रमण कर दिया। जो रूस के शत्रु थे अमेरिका आदि, वे उसके मित्र बन गए।
सामाजिक जीवन में भी देखें। कोई किसी का स्थायी मित्र अथवा शत्रु नहीं होता। जब तक अपना स्वार्थ सधता है तब तक सब मित्र बने रहते हैं। स्वार्थ सधता है तो शत्रु भी मित्र बन जाता है। स्वार्थ का विघटन होता है तो गाढ़ मित्र भी शत्रु बन जाता है। बहुत लोग आते हैं, कहते हैं हमने तो उस पर इतना भरोसा किया, उसे अपना माना और उसने ऐसा धोखा दिया। बहुत दुःख हो रहा है।
मैंने कहा-तुम्हारे लिए दुःख भोगना बचा है तो भोगो अन्यथा छोड़ो इस जंजाल को। यह इस दुनिया का स्वभाव है। तुम किसी को अपना मत मानो। अपना मानो तो केवल अपनी आत्मा को ही मानो।
अभी कुछ क्षण पूर्व एक व्यक्ति ने दर्शन किए, पूछा-'महाप्रज्ञश्री! बार-बार यह कहा जाता है कि भीतर देखो। भीतर है कौन? आदमी तो कोई नहीं बैठा है भीतर। हां, कभी भूख लगती है तो यह कह देते हैं चूहे लड़ रहे हैं पर चूहे भीतर होते तो नहीं हैं।'
मैंने कहा-'भीतर कोई नहीं है। न कोई आदमी बैठा है न कोई भूत बैठा है, न कोई चूहा बैठा है। भीतर है अपनी आत्मा, अपनी चेतना। वह भीतर बैठी है। चाहे उसको अपना प्रभु कहो, अपना सब कुछ कहो, वह भीतर है। उसको देख लें तब कोई खतरा नहीं है। कभी धोखा नहीं होगा, कभी छलना नहीं होगी, कभी ठगाई नहीं होगी, कभी पछतावा भी नहीं होगा।' जो भीतर नहीं, बाहर रहता है, उसके साथ सब कुछ हो सकता है। रागात्मक जगत् में कुछ भी असंभव नहीं है। हम रागात्मक जगत् की प्रकृति को समझें और फिर जीयें तो कठिनाइयां कम होंगी। राग-द्वेषात्मक जगत् की प्रकृति को समझे बिना जीना चाहते हैं, जीते हैं तो पग-पग पर कठिनाइयों का होना संभव है। समाज का जीवन व्यावहारिक जीवन है। इसमें रागात्मकता के बिना काम भी नहीं चलता।
व्योमगति ने कहा-'राजन्! अगर आपको शांति से जीना है और शक्ति के साथ जीना है तो जम्बूकुमार