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आचारांग सूत्र का एक प्रसिद्ध सूक्त है - अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ - अपने आप से लड़ो। दूसरों से लड़ने से तुम्हें मतलब क्या है? क्यों लड़ते हो दूसरों से ?
प्रश्न हुआ—–अपने आपसे क्यों लड़ें? इसका हेतु भी बतलाया गया–अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय सुपट्ठिओ - आत्मा ही मित्र है और आत्मा ही शत्रु । जब आत्मा शत्रु है तो आत्मा से लड़ो। दूसरा शत्रु व्यवहार में होता होगा किन्तु निश्चय में शत्रु अपनी आत्मा ही है। अपनी आत्मा जब दुराचार में, दुष्प्रवृत्ति में रत होती है, सचमुच शत्रु बन जाती है। जितनी शत्रुता व्यक्ति की अपनी वृत्तियां करती हैं, उतनी शत्रुता दूसरा कोई कर नहीं सकता । शत्रु कहीं बाहर रहता है, दूर रहता है, कभी कभार सामने आता है। ये दुष्प्रवृत्तियां चौबीसों घंटे साथ रहती हैं। बाहर का शत्रु उतना खतरनाक नहीं होता, जितना भीतर का शत्रु होता है।
आत्मा का बुरा विचार, बुरा भाव, बुरा आचरण - ये सब शत्रु हैं और ये ही अनिष्ट करते हैं। एक बुरा विचार आता है, स्वयं का कितना अनिष्ट हो जाता है, दूसरा उतना कर ही नहीं सकता। इसीलिए कहा गया-बाहरी शत्रुओं से लड़ने से क्या होगा ? अपने भीतर जो अपना शत्रु बैठा है, उससे लड़ो, उसे भगाओ।
महावीर ने कायरता नहीं सिखाई । लड़ने की बात से रोका नहीं। मनुष्य की वृत्ति है-संघर्ष, लड़ाई और युद्ध। उसे कभी रोका नहीं जा सकता किन्तु दिशा बदल दी। जो आदमी दूसरों से लड़ता था, महावीर ने अध्यात्म की भूमिका पर कहा—'तुम दूसरों से मत लड़ो। यदि लड़ने में रस है तो अपने आप से लड़ो। बाहर के शत्रुओं से नहीं, भीतर के शत्रुओं से लड़ो।'
बाहर के शत्रुओं से लड़ना बहुत सरल है, अपने आपसे लड़ना बहुत कठिन। व्यक्ति दूसरों से लड़ाई जल्दी शुरू कर देता है। बहुत कठिन है अपनी वृत्तियों से लड़ना ।
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गाथा
परम विजय की
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