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________________ व्यक्ति चोरी करता है तो तृष्णा से अभिभूत हो जाता है। एक तृष्णा, एक अमिट प्यास जग जाती है। वह उस प्यास से पराभूत हो जाता है। वह ऐसी प्यास है कि कितना भी पानी पीयो, कभी बुझती नहीं है। 'भाइयो! वह तृष्णा तुम्हारे भीतर है। तृष्णा के कारण आदमी अदत्तहारी बनता है। एक होता है दिया हुआ लेने वाला। एक होता है बिना दिये लेने वाला। भाइयो! क्या कोई भी आदमी तुम्हें इच्छा से देता है ? ' 'देता तो नहीं है।' 'तुम बिना दिये लेते हो?' 'हां।' 'तुम यह भी सोचो–बिना दिए धन लेना दूसरे का प्राण लेना है। धन प्राण से भी प्यारा होता है। उसे तुम लूटते हो। 'हां'। 'इसका मतलब है कि तुम उसके प्राण का अपहरण कर रहे हो। वह व्यक्ति कितना दुःखी बनता है, कितना रोता है, कितना कलपता है। क्या स्थिति बनती है ! क्या तुम लोग अनुभव करते हो ?' 'नहीं कुमार!' 'यदि तुम कोई अच्छे गृहस्थ होते, तुम्हारे घर कोई चोरी करने आता और सारा माल चुराकर ले जाता तो तुम्हें कैसा लगता? क्या तुम्हें पीड़ा नहीं होती ?' 'कुमार! अवश्य होती।' ‘भाइयो! तुमने अभी ‘आयतुला' का सिद्धांत नहीं समझा है। मैंने प्रभव को यह सिद्धांत समझाया है। हावीर का प्रमुख सिद्धांत है आयतुले पयासु - सबको अपनी तुला से तोलो, अपनी तराजू से तोलो। तराजू ; एक पल्ले में स्वयं को बिठा लो और दूसरे पल्ले में दूसरे को बिठाओ। फिर दोनों को बराबर तोलो। यह खो कि अगर यह स्थिति मुझमें बीतती तो क्या होता । तुम्हें यह स्पष्ट अनुभव होगा कि दूसरे को पीड़ा ना, दूसरे को सताना, दूसरे के प्राणों परिताप पहुंचाना बहुत बुरा काम है।' ‘भाइयो! तुम इस बात पर ध्यान दो। जो अतृप्त है वह हमेशा इस ताक में रहेगा कि मैं यह ले लूं, वह लूं। यह उठा लूं, वह उठा लूं। उसका यह एक ही ध्यान रहता है क्योंकि उसमें अतृप्ति है, वह तृप्त नहीं आ है। वह हमेशा खोजता रहता है कि यह मिल जाये, वह मिल जाये।' ‘भाइयो! वह अतृप्त है इसलिए परिग्रह करता है । मायामुसं वड्ढइ लोभ दोसा- उसके लिए माया एनी पड़ती है। एक चोर को कितनी माया करनी पड़ती है? कैसा जाल रचना पड़ता है? कहां सेंध लगाए, सके घर में घुसे और कहां क्या छुपा हुआ है? कितनी माया रचनी पड़ती है।' ‘भाइयो! दिन में थके हुए लोग विश्राम करते हैं, सुख की नींद सोना चाहते हैं। उस समय तुम जाकर माया रचते हो। छिपे-छिपे सारा धन उठाकर ले आते हो। क्या यह अच्छा कार्य है?' 'नहीं, यह अच्छा कार्य तो नहीं है।' १८ Im गाथा परम विजय की m e
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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