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गाथा परम विजय की
भी एक भूत सवार था, एक नशा था, उन्माद था। मुझे यह पता ही नहीं चला कि मैं कितना बुरा काम रहा हूं। आज जैसे ही वह नशा उतरा, वह भूत उतरा और मैं अपनी मूल चेतना में आया तो मुझे लगा अरे ! मैं कहां राजकुमार था और कहां चोर बन गया ? अब मुझे अपने कृत्यों पर पश्चात्ताप हो रहा है।'
'कुमार! तुम कोई ऐसी वाणी बिखेरो, ऐसा कोई ध्वनि का प्रकंपन करो, जिससे सबके मन प्रकंपित हो जाएं।
‘कुमार! जैसे मैं तैयार हो गया, वैसे मेरे साथी तैयार हो जाएं तो दुनिया का एक बड़ा आश्चर्य होगा, एक बड़ा चमत्कार होगा कि पांच सौ दुर्दान्त चोर एक साथ मुनि बन गये। '
अगर आज एक चोर को भी दीक्षा दे दें तो लोग अपवाद करने लग जाएं कि देखो, शिष्यों की कितनी भूख है । कल तो चोर था और आज वह साधु बन गया।
प्रभव ने अनुरोध किया- 'कुमार! तुम यह चमत्कार घटित कर सकते हो और तुम्हें यह करना चाहिए।' चोरों को संबोधित करते हुए प्रभव ने कहा- 'अब शांत मुद्रा में रहो। धन की बात छोड़ो, चोरी की बात छोड़ो। जम्बूकुमार सामने खड़े हैं। ये तुम्हें एक प्रतिबोध देते हैं, ज्ञान देते हैं। तुम उस ज्ञान को सुनो।'
‘साथियो! तुम्हारे हाथ-पैर खुल गये, केवल इतना ही नहीं हुआ है। जम्बूकुमार ने तो मेरी भीतरी आंख भी खोल दी है। अब तक मेरी वह आंख बंद थी। साथियो ! मैं चाहता हूं कि तुम्हारी भी अब भीतरी आंख खुल जाए। इसलिए जम्बूकुमार की बात तुम ध्यान से सुनो।'
संयोजन प्रभव ने कर दिया। सब सुनने के लिए तैयार हो गये, सुनने की मुद्रा में आ गए।
जम्बूकुमार ने कहा-'देखो भाई! तुम चोरी करने आये । तुम सारी संपदा चुराना चाहते थे पर नहीं ले पाये, तुम सोचो -कोई आदमी चोरी क्यों करता है? तुम महावीर की वाणी को ध्यान से सुनोअतुट्ठी दोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ।
दुःखी आदमी चोरी करता है। सुखी आदमी कभी चोरी नहीं करता । यह एक ध्रुव सिद्धांत है - जो चोरी करता है वह दुःखी है और जो दुःखी है वही चोरी कर सकता है। सुखी आदमी कभी चोरी नहीं कर सकता ।
जम्बूकुमार ने महावीर की वाणी को सामने रखकर प्रतिबोध देना शुरू किया-'बंधुओ ! आप सोचते होंगे-हम खूब चोरी में माल लाते हैं और खूब भोग करते हैं। हम दुःखी कहां हैं?'
‘भाइयो! तुम यह सच समझ नहीं पा रहे हो कि तुम्हारे मन में तोष नहीं है। कितना ही धन आए, संतोष नहीं होता। जैसे आग में सब स्वाहा होता है वैसे तृष्णा की अग्नि में सब स्वाहा हो जाता है । कहीं संतोष नहीं है। इस अतुष्टि–असंतोष से आदमी दुःखी बनता है।'
महावीर ने सुख के दस प्रकार बतलाए हैं। उनमें सबसे बड़ा सुख है संतोष। पहला सुख है निरोगी काया और दसवां सुख है संतोष। कहा गया - संतोषः परमं सुखं - संतोष परम सुख है । जो असंतुष्ट होता है, असंतोष में जीता है वह दुःखी होता है और दुःखी आदमी चोरी करता है।
तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, भावे अतित्तस्स परिग्गहे य । माया मुसं वड्ढइ लोभ दोसा, तत्था वि दुक्खा न विमुच्चइ से ||
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