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गाथा परम विजय की
विकास का आधार है गति। यदि गति को निकाल दें तो विज्ञान निकम्मा बन जाए, विकास का रथ रुक जाए। सब कुछ गति पर निर्भर है। जैन आगमों में भी गति के बारे में बहुत बतलाया गया। सारा परिवर्तन गति के द्वारा होता है। गति समान नहीं होती। परमाणु की गति बहुत तेज होती है। वह एक समय में नीचे के लोकांत से ऊपर के लोकांत तक चला जाता है। और भी कुछ पदार्थ हैं जिनकी गति तीव्र होती है। यह सब जानते हैं कि मन की गति तेज होती है। यहां बैठे-बैठे जहां चाहें, यात्रा कर आएं। कितनी तीव्र गति है। बाह्य में भी जो नभोयान है, आकाशगामी विमान हैं, उनकी गति तेज होती है। विद्या के द्वारा संचालित विमान की गति और अधिक तीव्र होती है। उन्हें न कहीं रुकना पड़ता, न पेट्रोल लेना पड़ता, न कहीं विश्राम करना पड़ता। बिना पेट्रोल, बिना साधन केवल विद्या के बल पर यान चलता है, तीव्र गति से चलता है।
व्योमगति विद्याधर और जम्बूकुमार विमान में द्रुतगति से चलकर केरला के आसपास आ गए। उसके बाहर के परिसर में भारी कोलाहल सुनाई दे रहा था। जम्बूकुमार ने पूछा-'विद्याधरवर! यह कोलाहल किसका है?'
व्योमगति बोला-कुमार! यह रत्नचूल की सेना का कोलाहल है। वह केरला के चारों ओर घेरा डाले हुए है। सामने देखो यह वही सेना है, जो मृगांक राज्य को नष्ट करने आई है, केरला के परिपार्श्व को नष्ट करने के लिए तुली हुई है। मैंने तुम्हें बताया था-एक कन्या को लेकर इतना सारा विनाश हो रहा है।'
जम्बूकुमार ने धीर गंभीर स्वर में कहा-विद्याधरवर! विमान को रोको। मुझे नीचे उतरना है। राजा रत्नचूल के बल को देखना है।'
रक्ष रक्ष विमानान् भो!, तावद् व्योमगते क्षपात्।
यावता रत्नचूलस्य, द्रक्ष्यामि बलमुद्धतम्।। विद्याधर बोला-'मुझे राजा मृगांक के पास जाना है। तुम यहां क्या करोगे?' जम्बूकुमार-'मुझे यहां उतारो।'
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