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गाथा परम विजय की
इन दिनों एक किशोर उपासना में आया हुआ है । वह वैरागी है, दीक्षा लेना चाहता है, उसका नाम है यशवंत (वर्तमान मुनि जम्बूकुमार ) । वह चेन्नई का निवासी है। उससे कोई कि तुम वैरागी क्यों बने ? वह क्या उत्तर देगा? उससे कहा गया- दोपहर में धूप में पढ़ने के लिए आते हो, इतना कष्ट भी सहते हो । चेन्नई में रहने वाला राजस्थान की सर्दी गर्मी को सहन कर ले, क्या यह कठिन बात नहीं है? वहां तो सर्दी है ही नहीं। पूज्य गुरुदेव ने दक्षिण भारत की यात्रा की। मर्यादा महोत्सव था चिदम्बरम् में। सर्दी के मौसम में एक सूती पछेवड़ी से अधिक ओढ़ने की जरूरत कभी नहीं हुई । यदि किसी को यह संकल्प लेना हो कि बिना वस्त्र सर्दी में रहना है तो वहां कोई भी रह सकता है। न एलवान की जरूरत और न ऊनी कंबल की जरूरत। वहां रहने वाला एक छोटा बच्चा राजस्थान की सर्दी और गर्मी में रह जाए, यह बहुत कठिन है। किन्तु जब चेतना बदलती है तब न सर्दी बाधा देती है, न गर्मी बाधा देती है। मूल प्रश्न है चेतना का | स उस पर निर्भर हैं।
जम्बूकुमार की चेतना आत्मोन्मुखी बन गई। वह बोला-'मां ! मैंने बहुत अच्छी-अच्छी बातें सुनी।'
मां ने कहा-'बेटा! बहुत अच्छी बात है।'
'मां! मैंने यह भी सुना कि व्यक्ति साधना करके आत्मस्थ बन सकता है।'
'हां, बेटा ।'
'मां! और जो आत्मस्थ हो जाता है, आत्मा को पा लेता है वह केवली बन जाता है।'
जम्बूकुमार अब तक परोक्ष की बात कर रहा था, परस्मैपद की बात कर रहा था, आत्मनेपद की बात नहीं कर रहा था। व्याकरण के दो शब्द हैं परस्मैपद और आत्मनेपद । परस्मैपद यानी दूसरे के लिए। आत्मनेपद यानी अपने लिए।
मां ने समर्थन किया, कहा-'हां बेटा ! जो आत्मा की साधना करते हैं वे आत्मा को पा लेते हैं, आत्मा को देख लेते हैं और केवली भी बन जाते हैं। क्या तुम्हें पता नहीं, भगवान महावीर भी केवली थे, गौतम स्वामी केवली थे!'
'मां! क्या बहुत बड़ा होता है केवलज्ञान ?'
'हां, इतना बड़ा होता है कि कहा नहीं जा सकता । '
केवलज्ञान का परिमाण कितना है - सव्वागासपदेसं सव्वागासपदेसेहिं अणंतगुणियं पज्जवक्खरं निप्फज्जई।'—–लोकाकाश और अलोकाकाश। अनंत आकाश को अनंत आकाश से गुणा करें। आकाश के एक-एक प्रदेश पर अनंत पर्याय और उसको अनंत से गुणा करो - उसके जितने पर्याय बनते हैं, उतना बड़ा है केवलज्ञान।
मां ने कहा- 'बेटा, केवली बहुत बड़ा होता है, उससे बड़ा कोई ज्ञानी नहीं होता ।'
जम्बूकुमार के स्वर में परिवर्तन आया, वह परस्मैपद से आत्मनेपद की भाषा में आया, बोला- 'मां ! मैं भी आत्मा को देखना चाहता हूं।'
मां का सिर थोड़ा-सा ठनका। जहां भी आत्मा को देखने की बात आती है वहां मोह आगे आ जाता है।
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