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श्री परमात्मप्रकाश की टीका में पृ. २३० पर लिखा है कि'आहार दानं येन दत्तं तेन शुद्धात्मानुभूतिसाधकं बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नं द्वादशविधं तपश्चरणं दत्तं भवति। शुद्धात्माभावनालक्षणसंयमसाधकस्य देहस्यापि स्थितिः कृता भवति । शुद्धात्माोपलंभप्राप्तिरूपाभवान्तरगतिरपि दत्ता भवति।' अर्थात्- जिस गृहस्थ ने यति को आहार दान दिया उस गृहस्थ ने शुद्धात्मा की अनुभूति का साधक, बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से बारह प्रकार का तप ही दे दिया। शुद्धात्मा की भावना जिस संयम के साथ होती है उस संयम की साधक उस श्रमण की देह है। गृहस्थ ने आहार दान देकर मानो उस श्रमण की देह की स्थिति बना दी, उस देह की रक्षा कर दी। जिस गृहस्थ ने आहार दान दिया उसने शुद्धात्मा की प्राप्ति रूप मोक्ष दे दिया। क्योंकि मोक्ष का साधन मुनिव्रत है, मुनिव्रत का साधन शरीर है और शरीर का साधन आहार है। ऐसे आहार दान आदि चार प्रकार का दान भक्तिपूर्वक वह निर्ग्रन्थ श्रमणों को प्रदान करता है।
यह प्रकरण आचार्य अमृतचन्द्र जी की प्रवचनसार की टीका के अनुरूप है। चारित्र चूलिका की ५४वीं गाथा की टीका में कहा है कि 'गृहस्थ को तो महाविरति का तो अभाव है इसलिए उसे शुद्धात्मा की अनुभूति का भी अभाव है। वैयावृत्ति रूप यह शुभ राग गृहस्थ का शुभोपयोग है। इस शुभोपयोग राग के संयोग से गृहस्थ को भले ही वर्तमान में शुद्धात्मा का अनुभव नहीं है किन्तु यह शुभोपयोग ही परम्परा से मोक्ष का कारण है।' शुद्धोपयोगी मुनि को आहार दान, वैयावृत्ति आदि के माध्यम से वह गृहस्थ शुद्धोपयोग को परम्परा से प्राप्त करता है जैसे स्फटिक मणि के सम्बन्ध से ईंधन में सूर्य से आग परम्परा कर प्रकट होती है।
यदि गहस्थ है तो अपने पास धन अवश्य रखता है। वह गहस्थ धन के प्रति तष्णा तभी कम कर सकता है जब वह चार प्रकार का दान करे। परमात्मप्रकाश की टीका में पृ. २४९ पर कहते हैं कि- 'गृहस्थेन धने तृष्णा न कर्तव्या। तर्हि किं कर्तव्यम् ? भेदाभेदरत्नत्रयाराधकानां सर्वतात्पर्येणाहारादिचतुर्विधं दानं दातव्यम्।' अर्थात् गृहस्थ को धन में तृष्णा नहीं करनी चाहिए। तो फिर क्या करना चाहिए? भेद-अभेद रत्नत्रय के आराधक श्रमणों को सब तरह से आहार आदि चार प्रकार का दान देना चाहिए। यदि दान नहीं देखें तो वह गृहस्थ क्या करे? यह भी दिखाते हैं- 'नो चेत् सर्वसंग परित्यागं कृत्वा निर्विकल्प समाधौ स्थातव्यम्।' यदि दान नहीं देता है तो सभी प्रकार के परिग्रह का त्याग करके निर्विकल्प समाधि में स्थित हो जाना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि निर्विकल्प समाधि में वही स्थित हो सकता है जिसका सर्व परिग्रह का त्याग हो और परिग्रह का त्याग यति के ही होता है। इसलिए गृहस्थ यदि धन रखना चाहता है तो वह धन का दान करे, नहीं तो धन का त्याग करके मुनि बन जाए। यह गृहस्थ का धर्म अध्यात्म ग्रन्थों में भी कहा है तो अन्य की क्या बात?