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५. संवेग भावणा
सुविसुद्धं जिणधम्म कम्मक्खयकारणं कुसलभूदं। हरिसो हु सेवमाणे संवेगो तस्स होदि णवो॥१॥
श्री जिनधर्म अतिविशुद्ध है कर्म नाश का कारण है पुण्य फलों को देने वाला निःश्रेयस सुख धारण है। इसका सेवन करने से जो भवि जन मन में हर्ष धरे निश्चित ही संवेग भावना जीवन में निर्वेग भरे॥१॥
अन्वयार्थ : [जिणधम्मं] जिन धर्म [ सुविसुद्धं ] सुविशुद्ध है [ कम्मक्खयकारणं] कर्मक्षय का कारण है [कुसलभूदं] कुशलभूत है [ सेवमाणे ] इसका सेवन करने में [ हरिसो] जिसको हर्ष होता है [ हु ] निश्चित ही [ तस्स ] उसका [ संवेगो] संवेग [ णवो ] नया [ होदि ] होता है।
भावार्थ : जिनेन्द्र भगवान् का कहा धर्म बहुत विशुद्ध है। इस धर्म के सेवन से हृदय विशुद्ध होता है। कर्म मल का शोधन होने से आत्मा में अद्भुत पवित्रता आती है। जिन धर्म ही आत्मा में लगे कर्म क्षय का कारण है। आत्मा जिन कर्मों से बंधा है वह जिनेन्द्र भगवान् के अलावा विश्व में इस कर्मविज्ञान के बारे में कोई नहीं जानता है। आत्मा में जो पुद्गल परमाणुओं का समूह कैसे बंध जाता है, कितनी संख्या में बंधता है, उस कर्म का आत्मा में सत्त्व कब तक रहेगा? कब उसका उदय आएगा, उदय आने पर कैसा फल आत्मा को मिलेगा? आत्मा से कर्म का क्षय किन कारणों से होता है? कर्म क्षय हो जाने पर आत्मा में कौन-कौन से गुण उत्पन्न होते हैं? कर्म किस तरह आत्मा को एक गति से दूसरी गति में ले जाते हैं? कर्म किस तरह आत्मा को एक गति से दसरी गति में ले जाते हैं? कर्म कैसे शरीर की रचना करता है? कर्म कैसे संक्रमित होता है? कर्म किस तरह समय पाकर फल देता है? इत्यादि अनेकानेक प्रश्नों का समाधान मात्र जिनधर्म में ही है। अन्य दर्शन आत्मा के स्वरूप को ही सही ढंग से नहीं जानते हैं। आत्मा सूक्ष्म होने से संसारी प्राणियों के ज्ञान का स्पष्ट विषय नहीं बनता है। फिर उस आत्मा में लगे सूक्ष्म कर्म परमाणुओं का ज्ञान उन्हें कैसे हो? सर्वज्ञ के अलावा इस सूक्ष्म कर्मविज्ञान और आत्मा को कोई नहीं जान सकता है। गृहस्थों को जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड जैसे ग्रन्थों के अध्ययन से और श्रद्धान से इन विषयों का ज्ञान हो सकता है। जब ऐसे अतीन्द्रिय, सूक्ष्म विषयों पर श्रद्धान बैठ जाता है तभी वह कुशलभूत होता है। यह जिनधर्म सभी की कुशल, क्षेम करने वाला है। कुशल का अर्थ मंगल, कल्याण, पुण्य होता है। जिनधर्म की शरण में आकर आत्मा मंगलमय बन जाता है। इस तरह जिनधर्म के विषय में विचार करने से, इसी के आलोढन में समय बिताने से, इसी के उपकार का स्मरण करने से, जिनवाणी कथित तथ्यों का विचार-मन्थन करने से जिसको हर्ष उत्पन्न होता है उस आत्मा का संवेग भाव बढ़ता जाता है। जिनेन्द्र भगवान के कहे धर्म में हर्ष भाव होना ही संवेग कहलाता है। ऐसा संवेग भाव प्रतिदिन, प्रतिपल नया-नया उत्पन्न होता है। जिससे उस आत्मा को तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता है।
संवेग के लिए और क्या चिन्तन करें?