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भावार्थ : ज्ञानोपयोगी भव्य जीव सतत आत्मा की भावना करता है। वह शरीर को, बाहरी जगत् की दिखाई देने वाली वस्तु को, कर्म को, मन को, वचन को अपना नहीं मानता है। ये सभी पुद्गल द्रव्य की पर्याय हैं, ऐसा जानकर आत्मा में ही सदैव बहुत भावना करता है। आत्मा की इसी भावना से ही ज्ञानोपयोग से वह युक्त रहता है। ऐसा जीव ही ज्ञानोपयोगी है।
हे आत्मन् ! विचार कर कि यह शरीर पुद्गल परमाणुओं का पिण्ड है। आत्मा की कर्मों से संयोगजन्य अवस्था से उत्पन्न हुई यह मनुष्य पर्याय है। यह पर्याय आत्मा का स्वभाव नहीं है। यह शरीर दो द्रव्यों की मिलीजुली असमान-जातीय पर्याय है। कुछ समय तक इस शरीर के साथ आत्मा का सम्बन्ध है। इस तरह आत्मा का सदा साथी यह शरीर नहीं है। शरीर के संयोग से उत्पन्न हुई स्त्री, पुत्र आदि भी तेरे नहीं हैं। तू इनको मोहवश अपना मानता है। यह तेरी भूल है। तेरी यह बुद्धि ही मिथ्या है। तू इन सबके साथ रहकर भी किसी को अपना आत्मा
व! सभी का परिणमन अपने-अपने कर्मोदय से स्वयं हो रहा है। साझेदारी के व्यापार में निराकुल सुख कहाँ? फिर आत्मा और पुद्गल की साझेदारी से बने इस शरीर में सुख कैसे होवे? इस जगत् को देखता हुआ जब तू मोहित होता है तो सबको अपनाना चाहता है। परन्तु कौन तेरा हुआ है? तू पहले भी अकेला था, आज भी अकेला है। घर-परिवार में रहकर भी इन संयोगों में अपने आपको ज्ञाता दृष्टा देख । इस दुनिया को मात्र ज्ञाता दृष्टा बनकर देख-जान । मैं अपनी आँखों से सभी को देख रहा हूँ। एक दर्पण की तरह मुझे देखने में सब कुछ आता है किन्तु मेरे भीतर कुछ भी नहीं रहता है। कुछ भी नहीं ठहरता है। प्रतिबिम्ब को या छाया को अपना मानकर उसी में सुख दुःख मानना भ्रम है। आ तक मैंने इतने रूप देखे? क्या कोई रूप मेरी आँखों में रहा? नहीं। आज तक मैंने इतना रसास्वादन किया किन्तु कोई भी स्वाद मेरे पास ठहरा नहीं? मैंने मन चाहा स्पर्श सुख का आनन्द लिया किन्तु मेरे पास कोई भी सुख नहीं है। लहर के आश्रित होकर जैसे कोई मुर्दा कभी ऊपर आ जाता है और कभी पानी में डूब जाता है वैसे ही विषय सुख का आना-जाना है। शरीर में रहने वाले आत्मा के ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव की भावना करना ही सच्ची ज्ञान भावना है।
पुनः वही कहते हैं
णाणम्मि णेयाणि जदो पदंति णाणं हि जेटुं मुणिणो वदंति। आसेज्ज णाणं कलुसस्स Yणो भव्वो हि णाणस्सुवजोगजुत्तो॥७॥
ज्ञेय विश्व इस ज्ञानातम के दर्पण में आ स्वयं गिरे विश्व ज्ञेय से बड़ा ज्ञान है इसमें क्या आश्चर्य अरे। ज्ञान मात्र का आश्रय लेकर भाव कलुषता न्यून करे ज्ञान योग-उपयोग लगाकर ज्ञानी ज्ञान स्वभाव भरे॥७॥
अन्वयार्थ : [ जदो ] चूँकि [ णाणम्मि ] ज्ञान में [णेयाणि ] ज्ञेय पदार्थ [ पदंति ] आ जाते हैं इसलिए [णाणं]