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में चर्चा करना, इत्यादि विकथाओं के अनगिनत रूप हैं।
वाचनिक हिंसा से बचकर कायिक अहिंसा का पालन करने के लिए सूर्य प्रकाश में देखकर ईर्यापथ समिति से चलना, किसी भी वस्तु को उठाते-रखते समय देखना और फिर उस स्थान का परिमार्जन करके वस्तु को रखनाउठाना आदान-निक्षेपण समिति है। इसके अतिरिक्त अपने शरीर को खड़ा करना, बैठना आदि में भी सावधानी रखना और दिन में सूर्य प्रकाश में ही भोजन करना अहिंसा व्रत की कायिक प्रणाली है।
और भी पहचान कहते हैं
जो णिव्वियप्पसाहू बाहिरकज्जेहिं होइ अक्खोहो। समदा-लीणपसण्णो सीलवदे अणइचारो सो॥६॥
बाह्य जगत के कार्य-क्रमों में निर्विकल्प जो बना हुआ मन उलझन के भावों को तज क्षोभ रहित हो तना हुआ। इष्ट-अनिष्ट विकल्प मूर्खता रही ज्ञानिता समता में ऐसा मति में अवधारण कर व्रती बढ़ रहा क्षमता में॥६॥
अन्वयार्थ : [जो ] जो [णिव्वियप्पसाहू ] निर्विकल्प साधु [बाहिरकज्जेहिं] बाहरी कार्यों से [अक्खोहो] अक्षुभित [होइ] होता है [समदा-लीणपसण्णो ] समता में लीन प्रसन्न रहता है [सो] वह [सीलवदे] शीलव्रतों में [अणइचारो] अतिचार रहित होता है।
भावार्थ : व्रत निर्विकल्प होने के लिए ग्रहण किए जाते हैं। व्रती साधु निर्विकल्प कहलाता है। वह निर्विकल्प साधु अपने आवश्यक आदि बाह्य कार्यों को करके भी क्षोभरहित रहता है। राग आदि विकल्पों से मन में क्षोभ होता है। उन बाह्य कार्यों में इस तरह प्रवृत्ति करता है कि उसका मन समत्व से रहित न हो जाए। अक्षुब्धमना साधु ही समता में लीन रहता हुआ प्रसन्न रहता है। वह शीलव्रतों में निरतिचार होता है। मन में क्षोभ होना ही मनः शुद्धि की हानि होना है। व्रतों का प्रथम दोष अतिक्रम यहीं से प्रारम्भ होता है। कहा भी है
'क्षति मनःशुद्धिविधेरतिक्रम व्यतिक्रमं शीलव्रतेर्विलंघनम्। प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनं वदन्त्यनाचारमिहातिसक्ति ताम्॥'
अर्थात्- हे प्रभो ! मनः शुद्धि की हानि होना अतिक्रम है। शील, व्रतों का उल्लंघन होना व्यतिक्रम है। इन्द्रिय विषयों में प्रवृत्ति करना अतिचार है और अति आसक्ति धारण करने को अनाचार कहते हैं।