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जहाँ ऐसे व्यापार हैं वहाँ चौर्यानन्द और विषयसंरक्षणानन्द नाम का रौद्रध्यान भी हो ही जाता है।
३. इस लोक सम्बन्धी संज्ञाओं से बचाओ- इस लोक में मुझे अमुक वैभव मिले, अमुक पद मिले, मेरी प्रतिष्ठा बढ़े, इस लोक में मुझे लोग जानें इत्यादि मन में इच्छा मत करो। इस दुनिया में अपने-अपने समय पर, अपने-अपने स्थान पर यदि किसी का कुछ नाम उसके अच्छे कार्यों से रहा है, तो वह नाम भी सदा-हमेशा नहीं रहा है। यदि रहा भी हो तो उस नाम वाला आत्मा तो नहीं रहा। आत्मा का कोई नाम नहीं होता है। यदि नाम रह भी गया तो भी उससे उस आत्मा को तो कोई सुख नहीं है, जिसे दूसरा जन्म मिल गया और नया नाम प्राप्त हो गया है। इसलिए लौकिक इच्छा में मन को जाने से रोको।
४. परलोक सम्बन्धी संज्ञाओं से बचाओ- यदि इस जन्म में कोई वैभव या सुख न मिल पाए तो परजन्म के लिए भी उसकी इच्छा मत करना । बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं, मन्त्री-सांसदों के पद की अगले जन्म के लिए इच्छा मत करना। देव, इन्द्र, विद्याधर, नारायण का पद पाने की भी लालसा मत करना। इन आगामी भोग-विलासताओं के बारे में मन में जाग्रत या निद्रित अवस्था में स्वप्न मत देखना।
५.चार संज्ञाओं से मन को बचाओ- आहार की इच्छा मन में बनी रहना। पहले हम अमुक भोजन, अमुक रसों के साथ खाते थे, कितना अच्छा लगता था, कितना स्वादिष्ट लगता था, गरम-गरम-जायकेदार वह भोजन खाने में कितना आनन्द था? ऐसा मन में विचार भी मत लाना। पहले खाए हुए भोजन की तुलना अपने मन में वर्तमान के भोजन से न तो स्वयं करना और न ही अन्य के कहे जाने पर आनन्दित होना। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चारों संज्ञाएँ(इच्छाएँ) विचार करने से तृष्णा उत्पन्न करती हैं। चारों ही संज्ञा में मन में ही 'मिच्छा मे दुक्कडं' करके पश्चात्ताप करना। ये संज्ञाएँ सर्वप्रथम मन में विचार लाने से उत्पन्न होती हैं। फिर ये विचार बढ़ाने से और इन संज्ञााओं की पूर्ति करते जाने से और-और बढ़ती जाती हैं। इन संज्ञाओं का मनोविज्ञान यही है कि ये बढ़ाने से बढ़ती हैं और घटाने से घटती हैं। इसीलिए साधक! अपनी आत्मा की रक्षा इन संज्ञाओं से करो और अहिंसा की भावात्मक विधि का पालन भी करो।
मानसिक हिंसा से बचकर वाचनिक हिंसा से भी आत्मा को बचाओ। वाचनिक और वचनों से, बोलचाल से भी हिंसा होती है यदि उस भाषा में विकथाओं का पुट है। जो धर्म से सम्बन्ध नहीं रखती हैं वह बोलचाल विकथा है। स्त्रीकथा, धन की कथा, भोजन की कथा, राज कथा, वैर कथा, पर पाखंडियों की कथा और न जाने कितनी ही प्रकार की ऐसी ही कथा विकथा हैं। इन विकथाओं से मन को बचाना वचन गुप्ति है।
इस जगत् में अनेक स्त्रियाँ हैं, उनके विषय में परस्पर में वार्तालाप करना कि वहाँ की स्त्री बहुत चतुर थी, वह ऐसा करती थी, वैसा करती थी, यहाँ उन जैसी स्त्री एक भी नहीं है। यहाँ की स्त्रियाँ ऐसा करती हैं, या ऐसी रहती हैं, ऐसा व्यवहार करती हैं इत्यादि उनके विषय में की गई ऊहापोह से साधक का कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है।
अपने-अपने पिता-नाना के धन कमाने की या धनी होने की बातें करना। भोजन-पानी के विषय में समीक्षा करना, राजा-महाराजाओं की बातें करना, चोरों की चौरकला की बात करना, किसी व्यक्ति से वैर आदि के विषय