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ज्ञान प्रशंसा भी हो जग में वैभव सहित बना हो भूप। फिर भी आत्म प्रशंसा करके नहीं गर्व जो मन धारे पूज्य पुरुष लख नयन झुकाता विनयपूर्णवच-तन सारे॥७॥
अन्वयार्थ : [ कुल-रूव-णाण-विसए] कुल, रूप, ज्ञान के विषय में [ संपण्णो वि] सम्पन्न होकर भी [अप्प-संसरहिदो य] आत्म प्रशंसा से रहित होना व [ पुज्जेसु] पूज्य पुरुषों में [णीचदिट्ठी ] नीच दृष्टि होना [विणयस्स संपण्णदा णाम] विनय संपन्नता नाम है।
भावार्थ : सम्पन्नता परिपूर्णता है। यह सम्पन्नता सम्यग्दर्शन आदि धर्म से ही प्राप्त होती है। श्रेष्ठ कुल, सुन्दर रूप, सम्यग्ज्ञान आदि ऐसे दुर्लभ गुण हैं जो धर्म से ही प्राप्त होते हैं । धार्मिक जीव इन सबको प्राप्त करके भी उन्मत्त नहीं होता है। इसके अतिरिक्त बल, पराक्रम आदि भी ऐसे ही गुण हैं जिनकी प्राप्ति होने पर सामान्य आदमी को मद प्राप्त होता है। किन्तु सज्जन पुरुष इन्हें प्राप्त करके और अधिक विनयी तथा क्षमावान हो जाता है। कहा भी है
विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय। खलस्य साधो विपरीतमेतत् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥
अर्थात् दुष्ट पुरुष की विद्या विवाद कलह के लिए होती है। धन अहंकार के लिए होता है और उसकी शक्ति दूसरों को कष्ट देने के लिए होती है। साधु पुरुष के लिए यह वस्तुएं विपरीत फल देती हैं। उसकी विद्या ज्ञान (आत्मज्ञान) के लिए होती है, धन दान के लिए होता है और शक्ति (बल) दूसरों की रक्षा के लिए होता है।
सेठ सुदर्शन की तरह रूपवान होकर भी ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला, जयकुमार सेनापति की तरह शौर्य से सहित होकर भी क्षमावान, विनयी सम्यग्दृष्टि जीव होते हैं।
अब निर्मद जीव मोक्ष स्थान प्राप्त करते हैं, यह कहते हैं
णाणं य पुज्जा य कुलं य जादी बलं य इड्ढी य तवो सरीरं। छिण्णंति जे अट्ठविहं मदं ते णिम्माणगा जंति सिवस्स ठाणं॥८॥
नहीं ज्ञान का, पूजा का मद, ना जाति ना कुल का मद बल, ऋद्धि का तप तपने का, ना शरीर का जिसको मद। ऐसे मृदुतम भावों वाला साधक अठ मद नाश रहा उछल-उछल कर आत्मशक्ति से शिव-सुखकरता वास अहा॥८॥