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होने से अभिमान को बनाए रखने का दुःख रहता है। साधु- संतों के पास कुछ नहीं होता है इसलिए उन्हें सर्वसुखी कहा जाता है। आत्मानुशासन में तो उनका दूसरा नाम ही सुखी रखा है। यह सुखी जीव भी इसी अभिमान के कारण भीतर से दुःखी रहता है। अभिमान को जीतने की बजाय साधु पुरुष भी अभिमान को और पुष्ट करके सुखी होते हैं। वस्तुतः यह भी दु:ख को बनाये रखने का और और दु:खी बने रहने का तरीका है। जब तक समता पूर्वक अभिमान- अपमान को सहन करने की मानसिकता नहीं बनती है तब तक दुःख से मुक्ति नहीं होती है। प्रतिष्ठित श्रावक, धनी वर्ग भी इसी अभिमान को कायम बनाए रखने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते हैं। जो व्यक्ति इस जीवन में सुखी नहीं रह सकता है, भला वह परलोक में कैसे सुखी होगा? इस जीवन में प्रतिपल समता रखने से ही मृदुता, ऋजुता धर्म का आर्विभाव होता है। विनय सम्पन्नता इसलिए महान गुण है।
विनय एक तप है, यह कहते हैं
अब्भंतरो तवो खलु विणओ तित्थंकरहिं उद्दिट्ठो। णिम्मदमणेण जम्हा आदम्मि संलीणदा होदि॥६॥
तीर्थंकर. गणधर देवों ने दो प्रकार तप बतलाए विनय कहा अभ्यन्तर तप है, इसमें साधक मन लाए। निर्मद मन ही हलका होकर आतम में गोते खाता डूब-डूब कर डुबकी लेता करम मैल धोता जाता॥६॥
अन्वयार्थ : [तित्थंकरहिं ] तीर्थंकरों ने [ अब्भंतरो तवो ] अभ्यन्तर तप [ खलु ] निश्चित ही [विणओ ] विनय [ उद्दिट्ठो] कहा है। [ जम्हा ] चूंकि [ णिम्मदमणेण] निर्मद मन से [ आदम्मि ] आत्मा में [ संलीणदा] लीनता [होदि] होती है।
भावार्थ : तप दो प्रकार के हैं। बाह्य तप एवं अभ्यन्तर तप। बाह्य तप में शरीर की तपस्या की मुख्यता रहती है। अन्तरङ्ग तप में मानसिक तप की मुख्यता रहती है। अन्तरङ्ग तप से कर्म की निर्जरा अवश्य होती है किन्तु बाह्य तप के साथ नियमाकता नहीं है। विनय एक अन्तरङ्ग तप है। इसे तीर्थंकरों ने कहा है। विनयशील मनुष्य के हृदय में सन्ताप नहीं रहता है जिससे उसकी आत्मा में लीनता सहज हो जाती है। अहंकारी व्यक्ति आत्मा में मन नहीं लगा पाता है।
विनय सम्पन्नता किसे कहते हैं? -
कुलरूवणाणविसए संपण्णो वि अप्पसंसरहिदो य। पुज्जेसु णीचदिट्ठी विणयस्स संपण्णदा णाम॥७॥
उच्च कुलीन महाजन हो या सुन्दर हो चौखा हो रूप