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सम्मेद पर्वत आदि सिद्ध क्षेत्र की वन्दना का पुण्य तो अलौकिक है ही किन्तु अकृत्रिम चैत्यलयों की वन्दना का पुण्य तो और भी अद्भुत है।
अहो भव्यात्मन्! कितनी अद्भुत है अकृत्रिम चैत्यालयों की महिमा जिनके दर्शन बड़े-बड़े विद्याधर और विभूति सम्पन्न देव भी करने को लालायित रहते हैं। आज हम लोगों का इतना पुण्य नहीं है कि इन जिनालयों के दर्शन साक्षात् कर सकें किन्तु पहले जब देवों का आवागमन इस क्षेत्र में होता था और विद्या सिद्धि सहज थी इन जिनालयों के दर्शन करने वाले श्रावक और श्रमण अद्भुत पुण्य अर्जित करते थे। देखो ! सेठ जिनदत्त को एकान्त में श्मशान में सामायिक करते देख जब देवों ने इनकी परीक्षा ली तो सेठ जी की दृढ़ता देखकर उन देवों ने उन्हें आकाशगामिनी विद्या दी। इस विद्या से वह सेठ जी सुमेरु पर्वत के अकृत्रिम जिनालयों की वन्दना करने प्रतिदिन जाया करते थे ।
विद्या सिद्धि की विधि किसी अन्य को भी हो सकती है, और उस विधि को भी देव लोग सेठ को बताकर चले गये। बाद में अंजन चोर ने इस विद्या को सिद्ध करके सुमेरु पर्वत पर पहुँचकर अद्भुत आश्चर्य से अकृत्रिम जिन बिम्बों के दर्शन किये।
हे पाठकवृन्द! इन जिनालयों की भाव सहित वन्दना यहाँ बैठे-बैठे की जाय तो भी वही लाभ होगा जो साक्षात् दर्शन से होगा। आचार्य समन्तभद्र देव तो अरहंत, सिद्ध भगवान् की भी यहीं बैठकर स्तुति करते हैं तो वही पुण्य लाभ और पुण्य परिणाम प्राप्त कर लेते हैं जो साक्षात् दर्शन से होता है। यही तो जैन धर्म में प्रत्येक जीव की स्वतन्त्रता है I
स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशल परिणामाय स तदा भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे श्रायसपथे स्तुयान् न त्वा विद्वान् सततमभिपूज्यं नमिजिनम् ॥ ११६ ॥
अर्थात् भगवान् की स्तुति भक्ति करने वाले भव्य पुरुष के पुण्य परिणाम के लिए होती है । स्तुति के समय वह आराध्यदेव उपस्थित हो अथवा न हो और उस आराध्य से स्तोता को फल की प्राप्ति हो अथवा न हो। इस प्रकार संसार में स्वाधीनता से कल्याण मार्ग के सुलभ होने पर क्या आप नमिनाथ जिनेन्द्र की स्तुति न करें ? अपितु अवश्य करें ।
समस्त द्वीप-समुद्रों में सबसे बड़ा और सर्वाधिक पूज्य पर्वत सुमेरु पर्वत है। इसे ही सुदर्शन, मेरु, महामेरु, सुरालय, मन्दर, शैलराज, वसन्त, प्रियदर्शन, सुरगिरि, स्वयम्प्रभ आदि अनेक नामों से कहा जाता है।
जम्बुद्वीप के बीचोंबीच में बने इस सुमेरु पर्वत पर नीचे से ऊपर की ओर क्रम से भिन्न-भिन्न ऊँचाई एवं भिन्न-भिन्न आकृति के चार वन हैं। भद्रशाल वन, नन्दन वन, सौमनस वन और पाण्डुक वन । इस पाण्डुक वन पर