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सम्मेदादि गिरीसु केवलिणं संति सिद्धठाणाणि। वंदणकरणं तेसिं सम्मत्तविसोही ए हे दू॥ ६॥
जहाँ-जहाँ से सिद्ध हुए हैं तीर्थंकर केवली भगवान् उन सब स्थानों को नित मैं वन्दन करके करता ध्यान। सम्मेदाचल पर्वत हो या ऊर्जयन्त के शिखर महान हैंसम्यक्त्व विशुद्धि हेतू आत्मशुद्धि की जो पहिचान॥६॥
अन्वयार्थ : [सम्मेदादि गिरीसु] सम्मेद आदि पर्वतों पर [ केवलिणं] केवलियों के [ सिद्ध ठाणाणि] सिद्ध स्थान हैं। तेसिं] उनकी [ वंदण-करणं] वन्दना करना[सम्मत्त-विसोहिए] सम्यक्त्व की विशुद्धि में [हेदू] कारण है।
भावार्थ : जहाँ से अरिहन्त भगवान का निर्वाण होता है, वह स्थान सिद्धभूमि बन जाती है। वह पवित्र निषीधिका कहलाती है। उस स्थान पर जाकर उन सिद्धों का स्मरण करना, उनकी पवित्र भूमि की वन्दना करना, परिक्रमा करना और भक्ति से सिद्ध-स्तुति करना सम्यग्दर्शन को विशुद्ध बनाता है। सम्मेद शिखर पर्वत तो अनन्तान्त सिद्ध परमात्माओं की मुक्ति भूमि है। उस पर्वत के शिखर पर पहुँचकर अनेकानेक सिद्ध आत्माओं का ज्ञान अपने मतिश्रुतज्ञान से हो जाता है। उस पर्वत पर बने चरणों की वन्दना मानो साक्षात् सिद्ध भगवान की वन्दना है। उन चरणों की परिक्रमा करना सिद्ध भगवान की परिक्रमा करना है। सम्मेद शिखर के अलावा पावापुरी, गिरनार जी आदि की वन्दना से भी ऐसे ही आत्मा की शुद्धि बनती है। जहाँ से सिद्ध भगवान बनते हैं उस क्षेत्र को सिद्ध क्षेत्र कहा जाता है। उस क्षेत्र पर इन्द्र आदि देव आकर निर्वाण कल्याण की पूजा करते हैं। तीर्थंकरों के उस निर्वाण क्षेत्र की वन्दना विशिष्ट रूप से की जाती है और उस स्थान पर इन्द्र कुछ चिह्नों को उत्कीर्ण कर देता है। जैसा कि स्वयंभू स्तोत्र में अरिष्ट नेमिनाथ की स्तुति में लिखा है
'मेघपटल परिवीततटस्तव लक्षणानि लिखितानि वज्रिणा।'
इन्द्र ने उस ऊर्जयन्त पर्वत पर भगवान अरिष्ट नेमि के लक्षणों को या चिह्नों को उत्कीर्ण कर दिया था। अथवा उनकी यशः प्रशस्तियों को वज्र से उत्कीर्ण किया था इसलिए ही यहाँ इन्द्र के लिए 'वज्रिणा' शब्द का प्रयोग किया
तीर्थंकरों की सिद्ध भूमि के अलावा अन्य सामान्य केवली भगवन्तों की सिद्ध भूमि भी विशुद्धि में कारण है, मंगलकारी है। पर्वत तल, जलगत स्थान, आकाशगत स्थान, गुफा, वन आदि जहाँ-जहाँ से सिद्ध हुए हैं उनकी यहीं रहकर वन्दना करना भी पाप के क्षय का हेतु है। ये सभी स्थान देवेन्द्रों की उत्कृष्ट भक्ति से स्तुत हैं और नमस्कृत हैं। कहा भी है
मोक्षगति - हेतु-भूत-स्थानानि सुरेन्द्र-रुन्द्रभक्तिनुतानि। मंगल-भूतान्येतान्यंगीकृतधर्म- कर्मणामस्माकम्॥