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नहीं किन्तु एक निर्णय की अवस्था है। यह निर्णय किया है कि हमारी आत्मा का स्वभाव शुद्ध है। इस निर्णय को निश्चय मानकर बैठोगे तो कभी भी उस निश्चय की प्राप्ति नहीं हो पायेगी ।
आप दिल्ली जाने के लिए जो जानकारी लिए वह मात्र ज्ञान है, अनुभव नहीं । घर में बैठे हुए दिल्ली का ज्ञान कर लेने से आपको दिल्ली का अनुभव नहीं होगा। दिल्ली जाना है, यह आपका निर्णय है, निश्चय नहीं । जिस समय आपका दिल्ली में पहुँचना होगा तभी आपको दिल्ली में हूँ, यह निश्चय होगा, उससे पहले नहीं, इसी प्रकार सिद्धत्व के विषय में जानना ।
हे सिद्ध समान आत्मन्! चलो उस सिद्धत्व को प्राप्त करने का आज हम निर्णय पक्का करते हैं। निर्णय को निश्चित ही हम अनुभूति में बदलेंगे। हम चलते हैं उस सिद्धपद की ओर परन्तु उससे पहले और कौन से स्टेशनों से हमें गुजरना होगा? यह भी जान लें । उन स्टेशनों से हमें गुजरना होगा । पुरुषार्थ करना होगा । वह पुरुषार्थ बाहर से भी होगा और भीतर से भी । बाह्य पुरुषार्थ की हँसी उड़ाकर तुम भीतर से भी पुरुषार्थ हीन हो जाओगे । इसलिए चलो, आगे बढ़ो।
जैसे ही चलने की बात आती है हम बगलें झाकने लगते हैं। क्यों ऐसा होता है ? सहज स्वभाव है मानव का ऐसा करना । जब पास में पैसा न हो और दिल्ली ले जाने कोई हमारा मन बना दे तो वह निर्धन क्या करेगा? मेरे पास सामर्थ्य नहीं है, इसलिए नहीं जा पा रहा हूँ, ऐसा कहने में तो शर्म आती है ना? हमारे अन्दर से इतना महान् पुरुषार्थ करने का साहस नहीं आ पा रहा है, हमारी योग्यता की कमी है, हमारे पुण्य का प्रबल भाव नहीं है जो घर से बाहर ले चलने में सहयोग दे, यह सब कहकर हम कमजोर क्यों बनें? ऐसा सोचकर हम अपने को गरीब की कोटि में क्यों डाल दें? जब हम किसी वस्तु को प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं तो हम उस वस्तु पर ही दोषारोपण करने को तैयार हो जाते हैं । अंगूर नहीं मिले तो लोमड़ी कहती है अंगूर खट्टे हैं । इसी तरह जब हम दिल्ली तक जाने की योग्यता नहीं रखते हैं तो मार्ग को दूषण देते हैं या मार्ग पर चलने वाले को । भैया ! 'उस रास्ते पर नहीं जाना बहुत चोरीडकैती होती है, बहुत कठिनाई से गुजरना होता है उसका एक्सीडेंट हो गया। रास्ते में ही मर गया। रास्ते में ही लुट गया फिर घर वापस आ गया। जो रकम थी वह खो बैठा। ऐसी गलती तुम नहीं करना ।' इत्यादि ढंग से डराना अनुचित है।
अरे! अनगढ़ आत्मन्! रास्ता होता है तो उस पर दुर्घटनाएँ भी होती हैं। लोग लुटते भी हैं, मरते भी हैं, असफल भी होते हैं परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि हम ऐसी दलीलें देकर स्वयं न चलें और न किसी को चलने
। आज यही हो रहा है। जिस किसी ने ऐसे लोगों की एक बार भी क्लास अटेन्ड कर ली तो वह और कुछ जाने या न जाने इतना तो जान ही जाता है कि द्रव्यलिंगी मुनि ही आजकल होते हैं, भावलिंगी मुनि तो हैं ही नहीं । और उसे कुछ रटाया जाय या नहीं सिखाया जाय पर एक दोहा जरूर रटा दिया जाता है, वह है
मुनिव्रत धार अनन्त बार ग्रैवेयक उपजायो निज आतम ज्ञान बिना सुख लेश न पायो ॥
देखो! मुनिव्रत धारण करने से कुछ नहीं होता है । हमने अनन्त बार मुनिव्रत धारण किये हैं और अनन्त बार ग्रैवेयक