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धम्मकहा 8871
(१) दर्शनविशुद्धि भावना जिनेन्द्र देव के द्वारा उपदिष्ट निर्ग्रन्थ मोक्ष मार्ग में रुचि होना और निःशंकित आदि अष्ट अंगों का पालन होना दर्शनविशद्धि है। निर्ग्रन्थ रूप दिगम्बर ही निश्चय से मोक्ष का मार्ग है और वही साक्षात् दर्शन है। उनके गुणों में और उनके गुणों की प्राप्ति के लिए उत्सुकता होना आत्मा के सम्यक्त्व गुण को विशुद्ध करता है। चूँकि मोक्षमार्ग का संबन्ध आत्मा के रत्नत्रय गुणों के साथ होता है इसलिए आत्मतत्त्व की रुचि बढ़ती है। निःशंकित आदि गुणों के पालन से सम्यक्त्व की उत्पत्ति भी होती है। ग्रहण किये हए सम्यग्दर्शन की विशद्धि भी निरतिचार आठ अंगों के पालन करने से और उन गुणों का चिन्तन करने से होती है,"तीर्थंकर केवली के द्वारा कहे हुए प्रवचन में मोक्ष और मोक्ष का मार्ग यह है अथवा नहीं है" इस प्रकार की शंका का अभाव होना निःशंकित अंग है । जो मोक्ष के मार्ग में निःशंकित होता है उसको संसार सुख में और पंचेन्द्रिय के सुखों में वांछा उत्पन्न नहीं होती है जिससे विषय सुख में अनाकांक्षा होने का नाम निःकांक्षित अंग है जिसके हृदय में रत्नत्रय के गुणों में अनुराग होता है वह रत्नत्रयधारी मुनिराजों को घृणा की दृष्टि से कैसे देख सकता है? जिससे उनके गुणों में प्रीति होती है और मलिन देह मैं भी घृणा का अभाव होता है यही निर्विचिकित्सा नाम का तृतीय अंग है। मिथ्यामतो में अनुरक्त नय और विज्ञान से शून्य कदाचित् अध्यात्म एकान्त के प्रवचन के द्वारा, कदाचित् मन्त्र तन्त्र आदि चमत्कारों के द्वारा कदाचित् काम भोग देह के पोषण की प्रमुखता वाले मनोरंजन उपदेशों के द्वारा ख्याति पूजा लाभ के द्वारा जो जन समूह को इकट्ठा करने की इच्छा करता है उस सबको देखकर भी मूढता का अभाव होना अमूढदृष्टि नाम का चतुर्थ अंग है। मोक्षमार्गोपयोगी ज्ञान चारित्र को धारण करने की शक्ति के अभाव से कितने ही जनों के द्वारा अज्ञान से अथवा अचारित्र से मार्ग में दूषण दिये जाने पर भी मार्ग तो शुद्ध है' इस प्रकार का विचार करके उन दोषों का आच्छादन करना उपग्रहन नाम का पांचवां अंग है। धर्म बुद्धि से उपदेश आदि के द्वारा मार्ग में पुनः उपस्थापन करना स्थितिकरण नाम का छठवाँ अंग है। धर्म और धार्मिकों में गोवत्स के समान सहज स्नेह करना वत्सलत्व नाम का सातवाँ अंग है। दान,तप,जिनपूजा,ज्ञान आदि के द्वारा जिनधर्म प्रभाव फैलाना प्रभावना नामक आठवाँ अंग है। इन आठ अंगों में प्रसिद्ध व्यक्तियों की कथाओं का चिन्तन करना,उपदेश देना भी सम्यक्त्व की विशुद्धि करता है। निर्ग्रन्थों के लिए विहार करते समय सिद्धक्षेत्र,अतिशय क्षेत्रों में अपूर्व जिनबिम्बों के दर्शन और उनकी भक्ति विशेष करने से भी सम्यक्त्व की विशुद्धि होती है। सत्य ही है
"सम्मेदाचल पर्वतों पर केवली भगवान के जो सिद्ध स्थान पर बने हुए हैं उनकी वन्दना करना सम्यक्त्व की विशद्धि का हेत है। विहार में प्राप्त होने वाले ग्राम और क्षेत्रों में जो जिनेन्द्र भगवान के बिम्बों की भक्ति के साथ में स्तति की जाती है वह भी सम्यक्त्व की विशुद्धि का हेतु है।" (तीर्थंकर भावना)
इस प्रकार दर्शनविशद्धि के प्रभाव से ही राजा श्रेणिक सातवें नरक की आयु को तैंतीस सागर तक कम करता हुआ प्रथम पृथ्वी की ८४000 वर्ष की आयु मात्र कर देता है और तीर्थंकर नामकर्म प्रकृति का भी बन्ध कर लेता है। सभी तीर्थंकर दर्शनविशुद्धि भावना के कारण से ही धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति करते हैं।