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(२२) मेंढ़क की कथा
मगध देश के राजगृह नगर में श्रेणिक राजा राज्य करते थे। वहीं पर नागदत्त नाम का सेठ अपनी भवदत्ता नाम की भार्या | के साथ निवास करता था। वह सेठ सदैव माया परिणामों से युक्त होता हुआ गृहकार्य और धर्म कार्य को करता था । इसलिए माया कषाय के साथ मरकर के वह अपने ही घर के आँगन की वापी में एक मेंढक बन गया। भवदत्ता सेठानी को वापी के समीप | देखकर के उस मेंढ़क को जाति स्मरण हो गया। जिससे उसके समीप आकर के उसकी देह पर वह उछलने लगा। भवदत्ता ने | प्रयास से उस मेंढ़क को अलग किया। अलग करने पर भी टर्र-टर्र शब्द से पुनः उसके समीप आकर के उसकी देह पर चढ़ जाता था। सेठानी विचार करती है कि- 'यह मेरा कोई इष्ट हो सकता है।' एक बार वह अवधिज्ञानी सुव्रत मुनि महाराज से उस मेंढ़क के विषय में पूछती है। मुनि महाराज ने सर्व वृत्तान्त कह दिया। सेठानी उस मेंढ़क को लेकर के घर में गौरव और अच्छी रक्षा के साथ में उसको रखने लगी।
धम्मकहा 61
एक बार वर्द्धमान तीर्थंकर का समवसरण वैभार पर्वत पर आया । श्रेणिक राजा ने उस समाचार को सुनकर के समस्त राज्य में भेरी बजवा दी कि सभी को वन्दना करने के लिए जाना है। जब सेठानी भी वन्दना करने के लिए घर से निकली तब वह मेंढ़क भी वन्दना करने के लिए वापी से एक कमल को ग्रहण करके निकल आया। रास्ते में जाते हुए वह राजा के हाथी के पेरों के नीचे आ गया। हाथी के पैर के भार से वह मरा और सौधर्म स्वर्ग में महान ऋद्धि वाला देव हुआ। अवधिज्ञान से पूर्व भव के वृत्तान्त को जानकर के शीघ्र ही वह देव समवशरण में आ जाता हैं। देव के मुकुट पर मेंढक के चिह्न को देखकर के श्रेणिक राजा उसका कारण पूछते हैं। गौतमस्वामी उसके वृत्तान्त को जैसा घटित हुआ है वैसा ही कह देते हैं। इस प्रकार सभी ने पूजा का अतिशय गणधर भगवान के मुख से प्रत्यक्ष सुना।
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जो श्रावक जिनेश्वरों की पूजा सुविशुद्ध चित्त होकर सदा अष्ट द्रव्य से पाप का विनाश करने के लिए करते हैं
वे उस अनुत्तर(उत्कृष्ट) सुख को प्राप्त करते हैं ॥ २२ ॥ अ.यो.