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धम्मकहा 8851
(१७) श्मश्रुनवनीत की कथा अयोध्या नगरी में भवदत्त नाम का सेठ अपनी धनदत्ता नाम की भार्या के साथ लुब्धदत्त नाम के पुत्र का सुख से पालन करते हुए रहता है। एक बार वह पुत्र व्यापार के निमित्त से दूर चला गया। वहाँ उसने जो धन अर्जित किया वह सब चोरों ने चुरा लिया। इस कारण से अत्यंत निर्धन होकर के वह किसी मार्ग से आ रहा था। वहाँ उसने एक गोपाल से पीने के लिए छाछ माँगी।
छाछ पी चुके होने पर कुछ नवनीत उसकी मूछों में लग गया। उसे देखकर उसने वह नवनीत निकाला और विचार किया कि| इसी से व्यापार करूँगा। इस तरह वह प्रतिदिन नवनीत का संचय करने लगा। जिससे उसका नाम श्मश्रुनवनीत नाम से प्रचलित हो गया।
इस प्रकार जब उसके पास एक प्रस्थ प्रमाण घी हो गया तब वह घी के पात्र को अपने चरणों के पास रखकर शयन करता था। बिस्तर पर सोते हुए विचार करता है कि- इस घी से बहुत धन कमाकर के मैं सेठ हो जाऊँगा। फिर सामंत हो जाऊँगा। फिर महासामंत, फिर राजा, अधिराजा इस तरह क्रम से होकर के चक्रवर्ती हो जाऊँगा। तब सात खण्ड के महल के ऊपर मनोहर शय्या पर शयन करूँगा। कोई सुंदर स्त्री मेरे चरणों को अपने कोमल हाथों से दबायेगी। मैं स्नेह के वश कहूँगा- तुम पैर दबाना नहीं जानती हो, इस प्रकार कहकर मैं अपने पैरों से उसको ताड़ित करूँगा। ऐसा विचार करते हुए उसने यथार्थ में ही पैरों से ताड़न कर दिया जिससे कि घी का पात्र गिर पड़ा। गिरे हुए घी के द्वारा गृह के द्वार पर रखी हुई अग्नि प्रज्वलित हो गई। उस अग्नि में वह भी जल गया। उसका मरण हुआ और दुर्गति को प्राप्त हुआ।
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जो कछ भी वैभव और सौभाग्य आज प्राप्त हुआ है
वह दैव(भाग्य) से ही होता है। उसे त्याग करने का भाव लोक में दुर्लभ पुरुषार्थ है॥१॥ अ.यो.