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धम्मकहा aa 25
हस्तिनागपुर में आ गये। कितने ही लोग दर्शन करने के लिए, कितने ही लोग उपदेश श्रवण करने के लिए, कितने ही लोग आशीर्वाद ग्रहण करने के लिए, कितने ही लोग विशिष्ट पूजा करने के लिए, कितने ही लोग सातसौ मुनि समूह का दर्शन करने के लिए, कितने ही लोग विशाल समूह के बीच आचार्य को देखने के लिए और कितने ही लोग उत्सुकता के साथ, कितने ही लोग धर्मगुरु के अनुराग के साथ, कितने ही लोग संगति के कारण से, कितने ही लोग हर्ष के कारण, कितने ही लोग वैयावृत्ति के भावों से, कितने ही लोग तत्त्व रुचि के कारण से, कितने ही लोग ध्यान मुनियों के दर्शन के भावना से, कितने ही लोग प्रयोजनवश और कितने ही लोग बिना प्रयोजन के गमनागमन करने लगे। जिससे नगर में वायु से आहत सागर के समान सर्वत्र क्षोभ फैल गया। पद्म राजा भी इन र्न ग्नों का भक्त है ऐसा जानकर के मंत्रियों को भय उत्पन्न हो गया। उस भय से उनका विनाश करने के लिए मंत्रियों ने पद्म राजा से पहले दिये हुए वर की माँग की मुझे सात दिन का राज्य काज्य दिया जावे। उनके कुटिल अभिप्राय को न जानते हुए राजा ने राज्य काज्य को प्रदान करने के साथ स्वयं अतःपुर में निवास करने चला गया। इधर बलि आदि मंत्रियों के द्वारा आतापन गिरि के ऊपर कायात्सर्ग में स्थित मुनियों को चारों ओर से घेरकर एक मण्डप में यज्ञ प्रारम्भ किया। बकरा आदि जावों के दुर्गंध क्लेवरों से उत्पन्न धुँये आदि के द्वारा बहुत भयंकर उपसर्ग हुआ। सभी साधु चारों प्रकार के आहार के परित्याग रूप बाह्य संन्यास के साथ रत्नत्रय की रक्षा करने के लिए देहपरित्याग रूप अभ्यंतर संन्यास से जैसी स्थिति में थे उसी में स्थित हो गये ।
तदनन्तर मिथलानगरी में आधीरात के समय पर श्रुतसागरचन्द्र आचार्य आकाश में काँपते हुए श्रवण नक्षत्र को देखकर के अवधिज्ञान से जानकर कहते हैं- महामुनियों के ऊपर महान उपसर्ग हो रहा है। ऐसा सुनकर के विद्याधर पुष्पदंत क्षुल्लक ने पूछाकिस स्थान पर किन मुनियों के ऊपर उपसर्ग हो रहा है? मुनिराज ने कहा- हस्तिनागपुर में अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनियों के ऊपर। उनका प्रतिकार कैसे हो? इस प्रकार पूछने पर गुरु कहते हैं- धरणिभूषण पर्वत के ऊपर विक्रियाऋद्धि के धारी मुनि विष्णुकुमार महातपस्वी हैं, वही उस उपसर्ग का निवारण में करने में समर्थ हैं। तब क्षुल्लकजी विद्या के प्रभाव से मुनि के समीप जाकर के सभी समाचार निवेदन करते हैं। क्या मेरे पास विक्रिया ऋद्धि है ? इस प्रकार का निर्णय करने के लिए मुनि अपने हाथ को फैलाते हैं तो वह हाथ पर्वत में प्रवेश करके दूर तक चला जाता है। तब अपनी ऋद्धि का निश्चय करके वह हरिनागपुर जाकर के पद्म राजा को कहते हैं- तुमने मुनियों के ऊपर यह उपसर्ग क्यों कराया है? तुम्हारे कुल में इस प्रकार का निंद्यकार्य पहले कभी भी किसी ने नहीं किया। राजा पद्म ने कहा- मैं क्या करूँ? मैंने पहले ही उसे वर प्रदान कर दिया था।
तब विष्णुकुमार मुनि एक वामन ब्राह्मण का रूप बनाते हैं और उस स्थान पर जाकर के मनोहर शब्दों से वेद का पाठ उच्चारित करते हैं। बलि कहता है- क्या चाहते हो? ब्राह्मण ने कहा- तीन पग भूमि प्रदान की जाये। सभी हँसकर के कहते हैंअन्य अधिक माँग लो क्योंकि मैं अभी राजा हूँ। बार-बार कहने पर भी तीन पग भूमि की ही इच्छा करते हैं। तब उनके द्वारा में सकल्प जल ग्रहण कराकर के तीन पग भूमि प्रदान की जाती है। तभी मुनि ने एक पाद मेरु पर्वत पर रख दिया, दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर और तीसरा पाद देव के विमानों में घूमकर बलि की पीठ पर रख दिया। सर्वत्र क्षोभ उत्पन्न हो गया। किन्नर आदि देवों के द्वारा प्रशंसा के गीत उच्चरित हुए। बलि क्षमा की प्रार्थना करने लगा। तब बलि को बाँधकर उपसर्ग का निवारण हुआ। वे चारों मंत्री भी पद्म राजा के भय से विष्णुकुमार और अकम्पनाचार्य आदि के चरणों में निवेदन करके क्षमा माँगते हैं और बाद में वे सब श्रावक बन जाते हैं।
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