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ॐ नम: सिद्धेभ्य
जैन धर्म इतिहास पर मुग़ल काल प्रभाव
भारतीय संभ्यता का जैन धर्म सबसे प्राचीन धर्म है । प्राचीन युगो में जैन धर्म को श्रमणों का धर्म कहा जाता रहा है। वेदों में उल्लेख है की
जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ ही प्रथम भगवान शिव है । जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर अरिष्ट नेमिनाथ भगवान कृष्ण के चचेरे भाई थे। जैन धर्म ने कृष्ण को उनके वैसष्ठ शलाका पुरुषों में शामिल किया है, जो बारह नारायणों में से एक है। ऐसी मान्यता है कि अगली चौबीसी में भगवन कृष्ण जैनियों के प्रथम तीर्थंकर होंगे। ई पू आठवीं सदी में 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए , जिनका जन्म काशी में हुआ था। काशी के पास ही 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म भी हुआ था। इन्हीं के नाम पर सारनाथ शहर है।
भगवान पार्श्वनाथ तक यह परंपरा कभी संगठित रूप में अस्तित्व में नहीं आई। पार्श्वनाथ क्षेत्र से ही पार्श्वनाथ संप्रदाय की शुरुआत हुई और इस परंपरा को एक संगठित रूप मिला। भगवान महावीर भी पार्श्वनाथ संप्रदाय से ही थे। जैन धर्म में श्रमण संप्रदाय का पहला संप्रदाय पार्श्वनाथ ने ही खड़ा किया । ये पार्श्वनाथ श्रमण, वैदिक परंपरा के विरुद्ध थे। यही से जैन धर्म ने अपना अगल अस्तित्व गढ़ना शुरू कर दिया था। महावीर तथा बुद्ध के काल में ये श्रमण कुछ बौद्ध तथा कुछ जैन हो गए। इन दोनों ने अलग-अलग अपनी शाखाएं बना ली।
तीर्थंकर भगवान महावीर : ईपू 599 में अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने तीर्थंकरों के धर्म और परंपरा को सुव्यवस्थित रूप दिया। कैवल्य ज्ञान का राजपथ सुनिश्चित किया। संघ-व्यवस्था का संगठन किया:- मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका। यही उनका चतुर्विघ संघ कहलाया। भगवान महावीर ने 72 वर्ष की आयु में देह त्याग किया। भगवान महावीर के काल में ही विदेहियों और श्रमणों की इस परंपरा का नाम जिन (जैन) पड़ा, अर्थात जो अपनी इंद्रियों को जीत लें वही जैन है भगवान महावीर के पश्चात इस परंम्परा में कई मुनि एवं आचार्य भी हुये है जिनमें से प्रमुख