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પ્રકરણાદિ સૂક્ત- રત્ન- મંજૂષા
३५ पूरिय-तव-पूआ-बीय-पूअ तन्नेह-तुरियघाणाइ ।
गुलहाणी जललप्पसी य, पंचमो पूत्तिकयपूओ ॥८२॥ ३६ दुद्ध दही चउरंगुल, दवगुडघयतिल्ल एग भत्तुवरि ।
पिंडगुल-मक्खणाणं, अद्दामलयं च संसहूं ॥८३॥ ३९ विगइगया संसट्ठा, उत्तमदव्वाइं निव्विगइयंमि ।
कारणजायं मुत्तुं, कप्पंति न भुत्तुं जं वुत्तं ॥८४॥ विगई विगइभीओ, विगइगयं जो अ भुंजए साहू। विगइ विगइसहावा, विगइ विगई बला नेइ ॥८५॥ फासिय पालिय सोहिय, तीरिय कीट्टिय आराहिय छ सुद्धं । पच्चक्खाणं फासिय, विहिणोचियकालि जं पत्तं ॥८६॥ पालिय पुण पुण सरियं, सोहिय गुरुदत्तसेसभोयणओ। तीरिय समहियकाला, कीट्टिय भोयणसमयसरणा ॥८७॥ इअ पडिअरिअं आराहियं, तु अहवा छ सुद्धि सद्दहणा ।
जाणण विणयऽणुभासण, अणुपालण भावसुद्धि त्ति ॥८८॥ -~- देवेन्द्रसूरिकृतः कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः ~~~
इह नाणदसणावरण-वेय-मोहाउ-नामगोआणि । विग्धं च पण-नव-दु-अट्ठवीस-चउ-तिसय-दु-पणविहं ॥८९॥ चक्खुद्दिट्ठि अचक्खु, सेसिदिय ओहिकेवलेहिं च । दंसणमिह सामन्नं, तस्सावरणं तयं चउहा ॥१०॥ सुहपडिबोहा निद्दा, निहानिद्दा य दुक्खपडिबोहा । पयला ठिओवविट्ठस्स, पयलपयला उ चंकमओ ॥११॥