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इस सू5d - रत्न- भषा-२
२५ संपइ दूसमसमए, दीसइ थोवो वि जस्स धम्मगुणो।
बहुमाणो कायव्वो, तस्स सया धम्मबुद्धीए ॥१०॥ २६ जे उ परगच्छि सगच्छि, जे संविग्गा बहुस्सुया मुणिणो ।
तेसिं गुणाणुरायं, मा मुंचसु मच्छरप्पहओ ॥११॥ ~~ रत्नसिंहसूरिकृतं धर्माचार्यबहुमानकुलकम् ~~ गरुयगुणेहिं सीसो, अहिओ गुरुणो हविज्ज जइ वि । तह वि हु आणा सीसे, सीसेहिं तस्स धरिअव्वा ॥१२॥ जइ कुणइ उग्गदंडं, रुसइ लहुण वि विणयभंगंमि । चोयइ फरुसगिराए, ताडइ दंडेण जइ कह वि ॥१३॥ अप्पसुए वि सुहेसी, हवइ मणागं पमायसीलो वि । तह वि हु सो सीसेहिं, पूइज्जइ देवयं व गुरु ॥१४॥ सोच्चिय सीसो सीसो, जो नाउं इंगियं गुरुजणस्स । वइ कज्जंमि सया, सेसो भिच्चो वयणकारी ॥१५॥ जस्स गुरुंमि न भत्ति, निवसइ हिययंमि वज्जरेहव्व । किं तस्स जीविएणं, विडंबणामेत्तरूवेणं ? ॥१६॥ पच्चक्खमह परोक्खं, अवन्नवायं गुरूण जो कुज्जा। जम्मंतरे वि दुलहं, जिणिंदवयणं पुणो तस्स ॥१७॥ जलपाणदायगस्स वि, उवयारो न तीरए काउं ।
किं पुण भवन्नवाओ, जो तारइ तस्स सुहगुरुणो? ॥१८॥ १३ एसा च्चिय परमकला, एसो धम्मो इमं परं तत्तं ।
गुरुमाणसमणुकूलं, जं किज्जइ सीसवग्गेणं ॥१९॥