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________________ 98 शिक्षाप्रद कहानिया की उक्ति को चरितार्थ करते हुए उसने नागराज का स्वागत करते हुए कहा कि- 'आइए नाग देवता पधारिए बड़ी कृपा की आपने मुझ पर जो यहाँ पधारकर आपने मेरी कुटिया को पवित्र किया।' ___ यह सुनकर नागराज भी अतीव प्रसन्न हुआ और बोला- 'तो ठीक है। आज से हम दोनों मित्र हैं। सुखः दुख में एक-दूसरे के काम आएंगे। इस प्रकार नागराज शिष्य से खूब प्रेम-पूर्वक बातचीत करने लगा। धीरे-धीरे वह लगभग प्रतिदिन ही शिष्य से मिलने लगा। और दोनों में घनिष्टता बढ़ने लगी। मित्रता की ओर शिष्य का एक कदम आगे बढ़ता तो नागराज दो कदम आगे बढ़ता। धीरे-धीरे मित्रता इतनी प्रगाढ़ हो गई कि नागदेवता उसके गले से लिपटने लगा। लेकिन, ये क्या हुआ? अब शिष्य को उससे डर लगने लगा। मणिकण्ठ तो प्रेम से सराबोर होकर शिष्य से प्रगाढ़ आलिंगन करता प्रेमी-प्रेमिका की तरह, लेकिन, मारे भय के शिष्य के प्राण सूखने लगते। परन्तु अब वह करे तो आखिर क्या करे? वैसे भी वह ठहरा साधु। साधुओं का हृदय तो सरल एवं कोमल होता ही है। कहा भी जाता है कि निर्गुणेष्वपि सत्त्वेषु, दयां कुर्वन्ति साधवः। न हि संहरते ज्योत्स्ना, चन्द्रश्चाण्डालवेश्मनः॥ अर्थात् सज्जन पुरुष गुणहीनों पर भी दया करते हैं। जैसे चन्द्रमा चाण्डाल के घर पर से अपनी चाँदनी को नहीं सिकोड़ता। उधर मणिकण्ठ का साहस इतना अधिक बढ़ गया कि वह शिष्य के गले में घण्टों लिपटा रहता। मारे भय के शिष्य की मनोदशा बड़ी चिन्तनीय थी। जब तक मणिकण्ठ वहाँ रहता, उसके प्राण-पखेरू मानो उड़े रहते। इस प्रकार दिनोदिन उसका शरीर मारे चिन्ता के बहुत कमजोर हो गया और वह ऐसा लगने लगा जैसे सालों से बीमार है।
SR No.034003
Book TitleShikshaprad Kahaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKuldeepkumar
PublisherAmar Granth Publications
Publication Year2017
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size477 KB
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