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शिक्षाप्रद कहानिया
99 संयोगवश एक दिन टहलते-टहलते गुरुजी उसकी कुटिया पर आ गए। उनके आने का एक कारण यह भी था कि बहुत दिनों से शिष्य उनसे मिलने नहीं गया था। गुरुजी ने उसे देखते ही तुरन्त पूछा- 'क्या कारण है कि तुम इतने कमजोर हो गए हो? कुशल मंगल तो है?'
शिष्य गहरी सांस लेते हुए बोला- 'गुरुजी! जिसकी साँप से प्रीति हो भला उसका कुशल मंगल कहाँ?' और इसके बाद शिष्य ने सारी आपबीती गुरुजी को सुनाई।
गुरुजी थे बड़े ही विद्वान् और बुद्धिशाली। अतः वे मन ही मन सोचने लगे कोई ऐसी युक्ति जिससे शिष्य की समस्या का समाधान भी हो जाए और न ही किसी दूसरे का भी अहित हो। क्योंकि वास्तविक गुरु तो निरन्तर शिष्य के हित में ही लगे रहते हैं। चाहे वह हित लौकिक हो अथवा पारलौकिक। कहा भी जाता है कि- “को गुरुः? अधिगततत्त्वः शिष्यहितायोद्यतः सततम्।' अर्थात् जिसने स्वयं तत्त्व को जान लिया है अर्थात् यथार्थ को जान लिया है और जो निरन्तर शिष्यों के हित के लिए अहर्निश तत्पर रहता है। उसे गुरु कहते हैं।
कुछ देर सोचने के बाद गुरुजी बोले- 'तुम नागराज से मित्रता रखना चाहते हो या उसका अन्त करना चाहते हो?'
शिष्य बोला- 'गुरुदेव! मैं इस मित्रता का अन्त करना चाहता हूँ। आप तो कोई ऐसा उपाय बताइए कि जिससे साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। अर्थात् मेरी समस्या का समाधान भी हो जाए और मणिकण्ठ का भी कोई नुकसान न हो।'
यह सुनकर गुरुजी बोले- 'तो इसमें इतनी चिन्ता की क्या बात है? बड़ा ही सीधा-सच्चा और सरल उपाय है। उधार को प्रेम की कैची कहते हैं। इसलिए यदि किसी से मित्रता तोड़नी हो तो उससे उधार माँगना शुरू कर दो। वर्षों की मित्रता क्षण भर में खत्म हो जाएगी।'
गुरुजी की बात शिष्य की समझ में आ गई। इसके बाद गुरुजी भी अपनी कुटिया की ओर चले गए। अगले दिन जैसे ही मणिकण्ठ