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________________ देख जैसा तू अब है, पहले मैं भी तो वैसा ही था, तेरे जैसा ही रागी, द्वेषी, मोही, दुरवी। मैं क्या हूँ, मेरा स्वरूपक्या है इसका सम्यक श्रद्वान किया, इसका सच्चा ज्ञान किया, और लग गया अपने से भिन्न राग, द्वेष,मोह आदि को दूर करने में और अब बनें गया हूँ शुद्ध,परम शुद्ध "निर्विकार। फिर आप भगवान कैसे बन 27 गये? तो क्या मैं भी आप जैसा बन सकता हूँ कभी भी? बन क्या सकता है, तू तो मम जैसा है ही। जो मेरा व्यक्त स्वरूप है वही तो तेरा स्वभाव है और तू जैसा शक्ति रूपसे है.वैसा ही मेरारूप प्रगट हो गया है। वर्तमान में, हाँ मुझ में न तुझ में केवल एक अन्तर है और वह अन्तर भी ऊपरी है, स्वभाव में नहीं। तेरे में राग भरा पड़ा है और मैंने उस रागको दूर कर दिया है। तू भी उस राग को दूर कर देंास्वंय भगवान बन जायेगा। फिर तुझे,किसी के दर्शन की आवश्यकता नहीं रहेगी। क्यों नहीं, क्यों नहीं! यह बिल्कुल सच है। क्या तूने नहीं सुने मनाहरजी वर्णी के ये शब्द - "मैंवह हूँ जो? भगवान, जोमै वह है भगवान । अन्तर यही ऊपरीजान, वेविराग यह राग वितान। सुना तो हैं भगवन, परसमझा नहीं उनका मर्म। अब मैं क्या करू? क्या कहा भगवन! म्यायह सच है, क्या मैं भगवान बन जाऊंगा?
SR No.033225
Book TitleGaye Ja Geet Apan Ke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Jain
PublisherAcharya Dharmshrut Granthmala
Publication Year
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Comics, Moral Stories, & Children Comics
File Size8 MB
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