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सोलहवें स्वर्ग की आयु पूरी | करके अश्वपुर नगर के राजा व्रजवीरज की पटरानी विजया के वज्रनाभि
पुत्र हुए.... वज्रनाभि चक्रवर्ति बने । अटूट सम्पति१४ रत्न, एनिधि
१८ करोड़ घोड़े ८४ लाख रथ २६ हजार रानी
छः खण्ड का अधिपति - सब
कुछ तो था उसके पास। तो भी धार्मिक क्रियाओं में ही लगा रहता था ।
बीज राख फल भोगते, ज्यों किसान जग मांही। त्यों चक्री नृप सुख करे, धर्म बिसारे नाहीं ॥
एक दिन.......
तो हे महात्मन मुझे वही मुनि दीक्षा दे दीजिये। ना जिससे मैं
आवागमन
से छूटने
का उपाय
कर सकूं
हे कृपासिंधु | मैं
इस कर्मबंधन छूना चाहता हूं । कृपया मुझे धर्म का उपदेश देकर कृतार्थ कीजियेगा,
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हे भव्य ! तूने भळा विचारा | धर्म ही शरण है। धर्म ही हित है। संसार असार है, शरीर अशुचि है। भोग क्षण भंगुर हैं। संसार में सुख है ही नहीं । सुख तो निराकुलता मोक्ष में है। और मोक्ष प्राप्ति बिना
● मुनिबने हो ही नहीं सकती ।,
वत्स ! तेरा कल्याण
हो ।