________________ सिरिसिरिवालकहा 21 खंतो दंतो संतो, एयस्साराहगो नरो होइ / जो पुण विवरीयगुणो, एयस्स विराहगो सो उ // 212 // तम्हा एयस्साराहगेण एगंतसंतचित्तेग / निम्मलसीलगुणेणं मुणिणा गिहिणा वि होयव्वं // 213 // जो होइ दुद्दचित्तो एयस्साराहगोवि होऊण / तस्स न सिज्झइ एवं किंतु अवायं कुणइ नूगं // 214 // जो पुण एयस्साराहगस्स उवरिमि सुद्धचित्तस्स / चिंतइ किंपि विरूवं तं नूणं होइ तस्सेव // 215 // एएण कारणेगं पसन्नचित्तेण सुद्धसीलेण। आराहणिज्जमेअं सम्मं तवकम्मविहिपुच्वं // 216 // आसोअसेअअहमिदिणाओ आरंभिऊणमेयस्स / अट्टविहपूयपुव्वं, आयामे कुणह अट्ठ दिणे // 217 / / नवमंमि दिणे पंचामएण ण्हवणं इमस्स काऊणं / पूयं च वित्थरेणं, आयंबिलमेव कायव्वं // 218 // एवं चित्तेवि तहा, पुणो पुणाष्टाहियाण नवगेणं / एगासीए आयंबिलाण एवं हवइ पुग्नं // 219 // एयंमि कीरमाणे, नवपयझाणं मगंमि कायव्वं / पुग्ने य तवोकम्मे, उज्जमणंपि विहेयव्वं // 220 / एरं च तवोकम्म, संमं जो कुणइ सुद्धभावेणं / सयलमुरासुरनरवररिद्धीउ न दुल्लहा वस्स // 221 //