________________ सिरिस्थणतेहरसूरिहि संकलिया . यया धणजुव्वण सुवियट्ठपण, रोगरहिम निब दे। मण वल्लह मेलापडउ, पुलिहिँ लम्भइ एहु॥७३॥ तं सुषिव मियो तुडो, पसंसए साहु साहु उज्झायो / जेणेसा सिक्खबिया, परिसावि भणेइ सच्चमिण // 7 // तो रम्ना आइछा, मपणा वि हु पूरए समस्त तं / निणवयणरया संता बंता ससहावसारिच्छं // 79 // यथा-विणयविवेयपसण्णमणु सीलमुनिम्मलदेहु / परमप्पडमेलावडउ, पुण्णेहि लब्भइ एहु // 76 // तो तीए उवझाओ, मायावि अहरिसिआन उण सेसा। जेण तत्तोवएसो न कुणइ हरिसं कुदिहिणं // 77 // इओ अ-कुरुजंगलंमि देसे, संखपुरोनाम पुरवरी अत्थि। जा पच्छा विक्खाया, जाया अहिछत्तनामेणं // 78 // तत्यत्यि महीपालो कालो इव वेरिआण दमिआरी। पइवरिसं सो गच्छइ, उज्जेणिनिवस्स सेवाए // 79 // अन्नदिणे तप्पुत्तो, अरिदमनो नाम तारतारुनो। सम्पत्ती पिअठाणे , उज्जेणिं रायसेवाए // 8 // तंचं निवपणमणत्यं, समागयं तत्थ दिव्वरूपधरं / सुरसुन्दरी निरिक्खा, सिक्खकडक्खेंहि ताडंति 81 // सत्येव थिरनिवेसिदिही दिडा निष्ण सा वाला। भणिया य कहसु वच्छे / मुझ परो केरिलो होड 82 // तो तीए हिट्ठार, पिट्ठाए मुक्कलोअलज्जाए। / भणिय तायफ्साया, 'मह लमइ मग्मिय कहति // 13 //