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________________ ब्राह्मी लिपि : उद्भव और विकास -डॉ. (श्रीमती) मुन्नी पुष्पा जैन, वाराणसी हमारे लिए यह गौरव और गर्व की बात है हमारे प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव ऐसे अद्वितीय महापुरुष हुए, जिनके पिता नाभिराज के नाम पर अपने देश का सर्वप्राचीन नाम 'अजनाभवर्ष' था और जिनके ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम पर आज अपने देश का नाम 'भारतवर्ष' है। साथ ही उनके द्वारा अपनी बड़ी पत्री ब्राह्मी को सिखायी गयी अक्षर विद्या से उस अक्षर लिपि का नाम 'ब्राह्मी लिपि' प्रसिद्ध हु सुन्दरी को अंकविद्या सिखाकर गणित का सूत्रपात हुआ। राजा ऋषभ के रूपमें जिन्होंने एक नहीं अनेक विधियों से 1. असि = युद्धकला, 2. मसि = लेखनकला, 3. कृषि = खेती, 4. विद्या = शिक्षा, 5. वाणिज्य = व्यापार और 6. शिल्प = कलायें- इन छह विद्याओं के प्रवर्तन से मानवीय जीवन को पूर्णता प्रदान कर नये युग का सृजन किया। भारतीय संस्कृति के अध्येता सूर्यकान्त वालीजी ने अपनी पुस्तक 'भारतगाथा' (पृ. 32) में लिखा भी है कि- जो लोग भारत में लेखन कला को बहुत बाद में शुरु हुआ मानते हैं उनके लिए निवेदन यह है कि वे कृपया ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी के बारे में परिचय प्राप्त करें जिनके माध्यम से पिता ऋषभदेव ने लेखनकला का इस देश में इतने पुराने समय में प्रवर्तन कर डाला था। यूँ ही नहीं भारत की प्राचीनतम लिपि को ब्राह्मी लिपि कहा जाता। इस प्रकार संसार को सब कुछ देकर संसार से ऊपर उठकर आध्यात्मिक ऊँचाई प्राप्त करने वाले, ऐसे महान् दार्शनिक राजा ऋषभ ने संयम साधनापूर्वक तीर्थङ्कर जैसे अमर पद को प्राप्त करं सदा के लिए अमर हो गये। भारत उनका सदा ऋणी रहेगा। भगवान् ऋषभदेव द्वारा सृजित यही ब्राह्मी लिपि भारत की प्राचीनतम लिपि है। भारत की अधिकांश प्राचीन और आधुनिक लिपियों का विकास इसी लिपि से हुआ है, अतः ब्राह्मी लिपि को अनेक लिपियों की जननी कहा गया है। आदिकाल से ब्राह्मी लिपि मूल भारतीय लिपि के रूप में प्रतिष्ठित रही और आज भी विभिन्न रूपों में पूरे भारत में विस्तरित है। यह भारतीय संस्कृति की उत्कृष्ट पहिचान है; किन्तु आश्चर्य है कि हम भारतीय अपनी इस महत्त्वपूर्ण मूल लिपि को लगभग दो शताब्दी पूर्व तक पूरी तरह भूल चुके थे। कुछ पाश्चात्य और कुछ भारतीय विद्वानों के हम ऋणी हैं कि बड़े परिश्रम से उन्होंने इस भूली-बिसरी अपनी इस लिपि को पढ़ने में क्रमश: सफल हुए और इस लिपि में उल्लिखित सैकड़ों शिलालेखों को पढ़कर हम अपने भारत की विशाल और प्राचीन गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत को समझने में सक्षम बन सके। इस सबके बावजूद अभी भी इस लिपि के विशेषज्ञ विद्वान् बहुत कम हैं। अत: हमें समय रहते इसका पूर्ण परिज्ञान कर लेना आवश्यक है। जनजन में इसका इतना प्रचार-प्रसार हो कि प्रत्येक व्यक्ति इसमें अपने विचार अपनी वर्तमान नागरी लिपि की तरह लिखने पढ़ने में सक्षम बन सकें, यही मेरी भावना है। इसी भावना से प्रेरित होकर देश के श्रेष्ठ विद्वानों से प्रसिद्ध शोध संस्थानों द्वारा आयोजित कार्यशालाओं में अनेक वर्षों तक इस विस्मृत ब्राह्मी लिपि का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त करने का मुझे सौभाग्य मिला है और मैंने इसके व्यापक प्रसार हेतु प्रशिक्षण शिविरों का भी आयोजन किया है। -76
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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