________________ तीर्थ हमारी संस्कृति के प्रतीक हैं। तीर्थ हमारी संस्कृति के कोषागार हैं। ये हमारे पूर्वजों की हमारे लिए सौंपी गयी धरोहर हैं, हमारे लिए छोड़े गये आशीर्वाद हैं। तीर्थ हमारे अतीत के दर्पण, वर्तमान के प्रकाशस्तम्भ एवं भविष्य के लिए आदर्श मार्गदर्शक हैं। ये वे स्थान हैं जो तीर्थङ्कर भगवन्तों, ऋद्धिधारी मुनियों एवं तपस्वियों के शुभ परमाणुओं से पावन हैं। ये स्थान एक ओर तो प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण हैं तो दूसरी ओर परमाणुओं की पावनता के कारण श्रद्धालुओं को राग, द्वेष, लोभ, मोह आदि विकारी परिणति से मुक्त कराके उन्हें संसार शरीर एवं भोगों से उदासीन होने का पाठ पढ़ाते हैं। ____ जब हम सांसारिक आकर्षणों के भँवरजाल में फँसे, कोल्हू के बैल की तरह सतत् भौतिक लालसाओं की पूर्ति में संलग्न रहते हैं एवं सांसारिक उतार-चढ़ाव से श्रान्त हो जाते हैं तब ये तीर्थक्षेत्र ही हमें सुख, शान्ति प्रदायक शरणस्थल सिद्ध होते हैं। तीर्थक्षेत्रों पर हमें प्राकृतिक सौन्दर्य के दर्शन, स्वास्थ्य लाभ, आत्मिक शान्ति, सन्त समागम, ज्ञानार्जन, अक्षय पुण्य प्राप्ति, पवित्र विचार एवं इहलोक एवं परलोक में कल्याण की भावना प्राप्त होती है। ऐसे तीर्थक्षेत्रों की संख्या हजारों में है जो देश के कोने-कोने में विद्यमान हैं। इन तीर्थों में से जिन स्थानों पर तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के कल्याणक हुए, या उनका विहार हुआ, ऐसे प्रमुख दिगम्बर जैन तीर्थ इस आलेख के विषय है। (3) मन्दिरों का निर्माण देवालय साधना और अर्चना के स्थान होते हैं। वहाँ जाकर मनुष्य को आत्मिक शान्ति और सन्तोष का अनुभव होता है। साहित्यिक साक्ष्य के आधार पर कहा जा सकता है कि कर्मभूमि के प्रारम्भिक काल से जिनायतनों का निर्माण होता रहा है। आदिपराण के अनसार इन्द्र ने जब अयोध्या की रचना की तो उसने सर्वप्रथम पांच जिनालयों की रचना की अर्थात् चारों दिशाओं में एक-एक तथा एक नगर के मध्य में। इसके बाद भरत चक्रवर्ती द्वारा 72 जिनालयों के निर्माण का उल्लेख मिलता है। इसके बाद अनेक व्यक्तियों द्वारा जैन मन्दिरों का निर्माण कराने के उल्लेख पुराणों में स्थान-स्थान पर मिलते हैं।२ भक्त, भगवान्, भक्ति और देवालय इन चारों का अभिनाभावी सम्बन्ध है। अत: जब से भक्ति है तभी से मूर्तियाँ है और जब से मूर्तियाँ हैं तभी से मन्दिर हैं। स्तूप, गुफा, चैत्य, विहार, मन्दिर, मानस्तम्भ, भौंयरे सभी देवालयों के ही प्रकार हैं। नन्दीश्वर जिनालय और सहस्रकूट जिनालय भी जिनालय शिल्प की एक विधा हैं। हमारा जीवन एक मन्दिर की तरह है। आत्मा की वीतराग अवस्था ही देवत्व है। हम सभी में वह देवत्व विद्यमान है। इस देवत्व को पहचान कर उसे अपने भीतर प्रकट करने के लिए हमने बाहर मन्दिर बनवाये हैं और उनमें अपने आदर्श वीतराग अर्हन्त और सिद्ध परमात्मा को स्थापित किया है। प्रस्तुत आलेख में तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ से सम्बन्धित देश के प्रमुख तीर्थों, मन्दिरों, उनकी पञ्चकल्याणक भूमियों एवं तीर्थों का विस्तृत परिचय प्रस्तुत किया गया है। इनमें प्रमुख हैं- वाराणसी, सम्मेदशिखर, अहिच्छत्र, बिजौलिया, रेशंदीगिरि आदि। -71