SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थकर पार्श्वनाथ से सम्बन्धित प्रमुख दिगम्बर जैन तीर्थों और मन्दिरों का वैशिष्ट्य - पं. लालचन्द्र जैन "राकेश", गंजबासौदा (1) तीर्थक्कर पार्श्वनाथ भारतवर्ष के धर्मनिष्ठ समाज में जिन महान् विभूतियों का चिरस्थायी प्रभाव है, उनमें जैनधर्म के तेइसवें तीर्थङ्कर भगवान् पार्श्वनाथ अन्यतम हैं। ...... पार्श्वनाथ वाराणसी के राजा अश्वसेन के पुत्र थे। उनकी माता का नाम वामा देवी था। उन्होंने 30 वर्ष की आय में गह त्याग कर दैगम्बरी दीक्षा धारण की थी तथा 100 वर्ष की आयु में सम्मेदशिखर से निर्वाण प्राप्त किया था। भगवान् पार्श्वनाथ समता, क्षमता, क्षमा, सहिष्णुता एवं धैर्य की साक्षात् मूर्ति थे। उन्होंने कमठ द्वारा अनेक भवों तक अकारण, एकपक्षीय बैर की घोरातिघोर उपसर्ग रूप क्रिया की कोई प्रतिक्रिया नहीं की अपितु उसे अत्यन्त शान्त भाव से सहन करते रहे। भ. पार्श्वनाथ तीर्थङ्कर थे। जो जीव सर्वजनहिताय, सर्वजन सुखाय की पवित्र भावना से आपूरित जब दर्शन विशद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं को भाता है तब तीर्थङ्कर प्रकृति में विशिष्ट पुण्य का संचय कर उक्त पद प्राप्त करता है। कालचक्र के परिणमन में एक कल्पकाल में, अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल में 24-24 तीर्थङ्कर होते है। भ. पार्श्वनाथ वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थङ्करों में से तेईसवें तीर्थङ्कर हैं। (2) तीर्थों का उदय तीर्थ यानी धाट। जिसे पाकर संसार समुद्र से तरा जाय वह तीर्थ है। जैनशास्त्रों में तीर्थ शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया गया है। हमें यहाँ मोक्ष के उपायभूत रत्नत्रय धर्म को तीर्थ कहते हैं, यह अर्थ अभिप्रेत है। तीर्थं करोति इति तीर्थंकरः, इस तरह धर्म तीर्थ के जो कर्ता अर्थात् प्रवर्तक होते हैं वे तीर्थङ्कर कहलाते हैं। जिन स्थानों पर इन तीर्थङ्करों के गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान एवं निर्वाण कल्याणक में से कोई एक या अधिक कल्याणक हुए हैं वे स्थान उनके संसर्ग से वैसे पवित्र हो जाते है जैसे रस या पारस के स्पर्शमात्र से लोहा सोना बन जाता है। ये महापुरुष संसार के प्राणियों के अकारण बन्धु हैं, उपकारक हैं। अत: उन्हें मोक्षमार्ग का नेता माना जाता है। उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने एवं घटित घटना की स्मृति बनाये रखने के लिए उस भूमि पर उन महापुरुषों का स्मारक बना देते हैं, ये स्थान तीर्थक्षेत्र की संज्ञा को प्राप्त कर लेते है होती जहाँ पुण्य की वर्षा, बहती शांति सुधारा है। जहाँ लगा सुध्यान आत्मा, पाती मुक्ति किनारा है।। अतिशयता अवलोकन जहाँ की, मन विस्मित रह जाता है। हो जाती भू पूज्य वहाँ की, तीर्थ नया बन जाता है।। - पं. लालचन्द्र जैन 'राकेश'
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy