________________ इस विषय में प्रभासपट्टन से बेबीलोनिया के बादशाह नेवुचडनज्जर का ताम्रपट्ट लेख सर्वाधिक प्राचीन है। डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकार ने उसका अनुवाद इस प्रकार किया है। "रेवानगर के राज्य का स्वामी, सुजातिका देव नेवुचुडनज्जर आया है। वह यदुराज के नगर (द्वारका) में आया है। उसने मन्दिर बनवाया। सूर्य ...... देव नेमि की जो स्वर्ण समान रैवत पर्वत के देव है, (उनको) हमेशा के लिए अर्पण किया।" नेवुचडनज्जर का काल 1140 ई.पू. माना जाता है, अर्थात् आज से 3000 वर्ष से भी पहले हैवतक पर्वत के स्वामी भगवान् नेमिनाथ माने जाते थे। उस पर्वत की ख्याति उन्हीं भगवान् नेमिनाथ के कारण थी। उस समय द्वारका में यदुवंशियों का राज्य था और वहाँ पर भगवान् नेमिनाथ की अत्यधिक मान्यता थी। इसलिए बेबीलोनिया के बादशाह ने द्वारका में नेमिनाथ का मन्दिर बनवाया। एक दूसरे शिलालेख को कर्नल टाड सा ने इस प्रकार पढ़ा था - सं. 1336 (1283 ई.) ज्येष्ठ सुदी 10 बृहस्पतिवार को पुराने मन्दिर के भग्नावशेषों को रेवताचल पर्वत पर से हटाकर नये मन्दिर बनाये गये। 16 जनवरी सन् 1875 को डॉ. जेम्स बर्गस सा ने गिरनार की यात्रा की। उन्होंने लिखा है जूनागढ़ से 1750 फीट की ऊंचाई पर जहाँ से सीढ़ियां आरम्भ होती है वहाँ से कुछ ऊपर निम्नलिखित शिलालेख है "स्वस्ति संवत् 1681 वर्षे कार्तिकवदि 6 सोम श्री गिरनार तीर्थनी पूर्वनी पातनो चढऋवाया श्री ढिवती संघे घीएणा निमित्ते श्री माला ज्ञातीस्यामासिंहजी मेघम्मीने उद्यमे काराव्यो।" इसमें पूर्व पांति की सीढ़ियों की मरम्मत कराने का उल्लेख है। ऊर्जयन्त (गिरनार, रैवतक) पर्वत दिगम्बर-परम्परा में तीर्थराज माना गया है। सम्मेद-शिखर को तो अनादिनिधन तीर्थ माना गया है, क्योंकि हुण्डावसर्पिणी काल के कुछ अपवादों को छोड़कर भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी तीर्थङ्करों का निर्वाण इसी पर्वत से होता है। इनके अतिरिक्त जिन मुनियों को यहाँ से मुक्ति लाभ हो चुका है, उनकी संख्या ही अनन्त है। इनकारणों से सम्मेदशिखर को तीर्थाधिराज की संज्ञा दी गयी है; किन्तु ऊर्जयन्तगिरि से 72 करोड़ 700 मुनियों की मुक्ति और तीर्थङ्कर नेमिनाथ के दीक्षा , कैवल्यज्ञान और निर्वाण कल्याणक यहाँ पर हुए है। सम्मेदशिखर को छोड़कर अन्य तीर्थङ्करों से सम्बन्धित किसी स्थान से इतने मुनियों का निर्वाण नहीं हुआ। इस दृष्टि से तीर्थों में ऊर्जयन्तगिरि का स्थान सम्मेदशिखर के बाद में आता है। इस सिद्धक्षेत्र पर आकर दिगम्बर मुनि ध्यान, अध्ययन और तपस्या किया करते थे जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है। यहाँ भद्रबाहु पधारे थे। धरसेनाचार्य यहाँ की चन्द्रगुफा में ध्यान किया करते थे। उन्होंने आचार्य भूतबली और पुष्पदन्त को सिद्धान्त का ज्ञान यहीं दिया था। यहाँ कुन्दकुन्द आदि अनेक दिगम्बर मुनियों ने यहाँ की यात्रा की थी। ऐसे अनेक उल्लेख प्राप्त होते है जिनसे ज्ञात होता है कि प्राचीनकाल से यहाँ दिगम्बर जैन व्यक्तिश: और यात्रा संघ के रूप में यात्रा के लिए आते रहे हैं। -85