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________________ दिगम्बर जैन-साहित्य में वर्णित तीर्थङ्कर मल्लिनाथचरित एवं उनकी पञ्चकल्याणक भूमियाँ - प्राचार्य डॉ. शीतलचन्द जैन, जयपुर भारतीय संस्कृति में जैन संस्कृति का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस संस्कृति में तीर्थङ्करों को मानव सभ्यता का संस्थापक नेता माना गया है। ये ऐसे शलाकापुरुष हैं जो सामाजिक चेतना का विकास करके धर्म-दर्शन का स्वरूप निर्धारण करते हैं और मोक्षमार्ग का प्रवर्तन करते हैं। तीर्थङ्कर शब्द तीर्थ उपपद कृत्र+अप से बना है। इसका अर्थ है जो धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करे वह तीर्थङ्कर है। तीर्थ शब्द भी तृ+थक् से निष्पन्न है। शब्दकल्पद्रुम के अनुसार 'तरति पापादिकं यस्मात् इति तीर्थम्' अथवा तरति संसार महार्णवं येन तत् तीर्थम् अर्थात् जिसके द्वारा संसार महार्णव या पापादिकों से पार हुआ जाय वह तीर्थ है। इस शब्द का अभिधा-गत अर्थ घाट, सेतु या गुरु है और लाक्षणिक अर्थ धर्म है। तीर्थङ्कर वस्तुत: किसी नवीन सम्प्रदाय या धर्म का प्रवर्तन नहीं करते वे अनादि निधन आत्मधर्म का स्वयं साक्षात्कार कर वीतरागभाव से उसकी पुनर्व्याख्या या प्रवचन करते हैं। जैनधर्म की मान्यता है कि अतीत के अनन्तकाल में अनन्त तीर्थङ्कर हुए है। वर्तमान में ऋषभादि चतुर्विंशति तीर्थङ्कर हैं और भविष्यत में भी चतुर्विंशति तीर्थङ्कर होंगे। धर्म के स्वरूप निरूपण में एक तीर्थङ्कर से दूसरे तीर्थङ्कर का किञ्चिन्मात्र भी भेद न कभी रहा है और न कभी रहेगा, पर प्रत्येक तीर्थङ्कर अपने-अपने समय में देश, काल, जनमानस की ऋजुता, तत्कालीन मानव की शक्ति, बुद्धि, सहिष्णुता आदि को ध्यान में रखते हुए उसे काल के मानव के अनुरूप धर्म-दर्शन का प्रवचन करते है। तीर्थङ्करों में सर्वप्रथम ऋषभदेव हुए पश्चात् तेइस तीर्थङ्कर और हुए जिसमें बालब्रह्मचारी अनासक्तियोग के प्रतीक उन्नीसवें तीर्थङ्कर मल्लिनाथ हुए। यद्यपि जिस प्रकार ऋषभदेव, नमि, नेमि, पार्श्व और महावीर का निर्देश जैनेतर वाङ्मय में प्राप्त होता है। वैसा निर्देश तीर्थङ्कर मल्लिनाथ का प्राप्त नहीं होता, परन्तु दिगम्बर जैन-साहित्य में उनके चरित पर पर्याप्त लिखा गया है। तीर्थङ्कर मल्लिनाथ का जैन वाङ्मय में जो चरित मिलता है उसके अनुसार पूर्व के दो भवों का विवेचन मिलता है। मल्लिनाथ के जीव को राजा वैश्रवण की पर्याय में तीर्थङ्कर प्रकृति का बंध हुआ, क्योंकि राजा वैश्रवण ने जंगल में वज्र के गिरने से वटवृक्ष को जड़ से भस्म होता देखकर विचार किया कि संसार में मजबूत जड़ किसकी है? जब इस बद्धमूल विस्तृत और उन्नत वटवृक्ष की ऐसी दशा हो सकती है तब दूसरे का कहना क्या? ऐसा विचार करता हुआ वह संसार की नश्वरता से भयभीत हो गया। उसने अपना राज्य पुत्र को देकर अनेक राजाओं के साथ श्रेष्ठ तप किया और सोलह कारण भावनाओं का चिन्तन कर तीर्थङ्कर बनने का मार्ग प्रशस्त किया। आगे आलेख में इसकी विस्तार से चर्चा की है। उक्त पर्याय में तपस्या के फलस्वरूप समाधिमरण कर अपराजित नामक अनुत्तर विमान में अहमिंद पद प्राप्त किया। तत्पश्चात् इस भरतक्षेत्र के बंगदेश की मिथिलानगरी में राजा कुम्भ की पटरानी प्रजावती की कुक्षि से तीर्थङ्कर मल्लिनाथ -55
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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