SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौदहवें तीर्थङ्कर अनन्तनाथ और उनके पञ्चकल्याणक - पं. सिद्धार्थ जैन, सतना धातकीखण्ड द्वीप में पूर्व मेरु की ओर उत्तर दिशा में स्थित अरिष्ट नामक सुन्दर नगर के राजा पद्मरथ थे। वे अपने गुणों से पद्मा अर्थात् लक्ष्मी का ही स्थान था, उसने चिरकाल तक पृथिवी का पालन किया जिससे प्रजा परम प्रीति को प्राप्त होती रही। किसी एक दिन वह स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के समीप गया। वहाँ उसने विनय के साथ उनकी स्तुति की और धर्म का उपदेश सुना। उपदेश सुनकर वह विचारता है कि मैं इन इन्द्रिय विषयों में अपनी बुद्धि स्थिर कैसे कर सकता हूँ? इन्हें नित्य किस प्रकार मान सकता हूँ? इस प्रकार उस राजा की बुद्धि मोहरूपी महागांठ को खोलकर उद्यम करने लगी। तदनन्तर जिस प्रकार चारों ओर लगी हुई वनाग्नि की ज्वालाओं से भयभीत हुआ हिरण अपने बहुत पुराने स्थान को भी छोड़ने का उद्यम करने लगा। उसने धनरथ नामक पुत्र के लिए राज्य देकर संयम धारण कर लिया। ग्यारह अंगरूपी सागर का पारगामी होकर सोलह कारण भावनाओं का चिन्तनकर तीर्थङ्कर प्रकृति का बंध किया। अन्त में सल्लेखना धारण कर शरीर छोड़ा और अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान से इन्द्रपद प्राप्त किया। चिरकाल तक सुख भोगकर जब वह इस मध्यलोक में आने के सम्मुख हुआ तब - इस जम्बूद्वीप के दक्षिण भरतक्षेत्र की अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री महाराज सिंहसेन राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम जयश्यामा था। देवों ने उसके महल के आंगन में छह माह तक रत्नों की श्रेष्ठ धारा बरसाई। कार्तिक कृष्णा प्रतिपदा के दिन रेवती नक्षत्र में रात्रि के अन्तिम प्रहर में महारानी जयश्यामा ने सोलह स्वप्न देखने के बाद मुंह में प्रवेश करता हुआ हाथी देखा। प्रात: उठ कर उसने अपने अवधिज्ञानी पति राजा से उन स्वप्नों का फल जाना। उसी समय वह अच्युतेन्द्र उसके गर्भ में आकर स्थित हुआ जिससे वह बहुत भारी सन्तोष को प्राप्त हुई। तदनन्तर देवों ने गर्भ कल्याणक में अभिषेक कर वस्त्र, माला और बड़े-बड़े आभूषणों से महाराज सिंहसेन और रानी जयश्यामा की पूजा की। ___ गर्भ कल्याणक का उत्सव मनाकर सभी देवतागण अपने-अपने स्थान को प्रस्थान कर गये। जयश्यामा का गर्भ सुख से बढ़ने लगा। नौ माह व्यतीत होने पर उसने ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी के दिन पूषायोग में पुण्यवान् पुत्र उत्पन्न किया। उसी समय इन्द्रों ने आकर उस पुत्र का मेरु पर्वत पर अभिषेक किया और बड़े हर्ष से 'अनन्तजित' यह सार्थक नाम रखा। प्रसिद्ध राजपरिवार में बालक अनन्तनाथ का बड़े प्यार से लालन-पालन होने लगा। तेरहवें तीर्थङ्कर विमलनाथ भगवान के बाद नौ सागर और पौन पल्य बीत जाने पर तथा अन्तिम समय धर्म का विच्छेद हो जाने पर भगवान् अनन्तनाथ जिनेन्द्र उत्पन्न हुए थे, उनकी आयु भी इसी अन्तराल में शामिल थी। उनकी आय तीन लाख वर्ष की थी। शरीर पचास धनष ऊँचा था, दैदीप्यमान सूवर्ण के समान रंग था और वे शरीर के एक हजार आठ शुभ लक्षणों से युक्त थे। मनुष्य, विद्याधर और देवों के द्वारा पूज्यनीय भगवान् अनन्तनाथ ने सात लाख पचास हजार वर्ष बीत जाने पर राज्याभिषेक प्राप्त किया था। वे भगवान् साम, दाम और भेद के द्वारा राज्य का पालन करते थे। अनेकानेक राजा इनकी आज्ञा को माला की तरह अपने सिर का आभूषण बनाते थे। ये प्रजा को चाहते थे और प्रजा इनको चाहती थी। महाराज सिंहसेन ने इनका कई राजकन्याओं के साथ विवाह सम्पन्न कराया था जिससे इनका गृहस्थ जीवन सुखमय व्यतीत हो रहा था। -45
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy