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________________ तीर्थङ्कर शीतलनाथ और उनकी पञ्चकल्याणक भूमिका - पं. कमलकुमार जैन शास्त्री 'गोइल्ल', कोलकाता भूमिका जैन धर्म के चौबीस तीर्थङ्करों की पवित्र परम्परा में तीर्थङ्कर ऋषभदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं भगवान् महावीर आदि अनेक तीर्थङ्कर ऐतिहासिक महापुरुष सिद्ध हो चुके हैं। यदि इसी तरह प्रत्येक तीर्थङ्कर के विषय में व्यापक अन्वेषण किया जाए तो सभी तीर्थङ्कर ऐतिहासिक महापुरुष सिद्ध हो सकते हैं और इस प्रकार जैन धर्म को इस देश का सर्वाधिक प्राचीन आदि धर्म मानने में किसी को कोई प्रश्न शेष ही नहीं रह जाएगा। इसी दृष्टि से इस विशाल विद्वत् सम्मेलन में पहली बार सभी तीर्थङ्करों के सम्बन्ध में शोध-आलेखों की प्रस्तुति देख-सुनकर अतीव प्रसन्नता हो रही है। मैंने भी यहाँ दसवें तीर्थङ्कर शीतलनाथ के विषय में उनका जीवन और उनके पञ्चकल्याणक से सम्बन्धित विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसी क्रम में क्रमश: उनके पश्चकल्याणक प्रस्तुत हैं१. गर्भकल्याणक जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में मलयदेश के भद्रपुर (भद्रिल) राज्य में इक्ष्वाकु कुल के भूषण राजा 'दृढ़रथ' - 'द्रीणरथ' राज्य करते थे। उनकी प्राणवल्लभा का नाम महारानी सुनन्दा था। भगवान् शीतलनाथ के अपनी माता के गर्भ में आने के छ: माह पहिले से सुनन्दा के घर पर इन्द्रों ने रत्नों की वर्षा करनी शुरू कर दी थी। चैत्र कृष्ण अष्टमी के दिन पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में महारानी सुनन्दा ने रात्रि के पिछले प्रहर में सोलह स्वप्न देखे। इन स्वप्नों का फल जानकर माता के अपार आनन्द हुआ कि उनके गर्भ से तीर्थङ्कर का जन्म होगा। 2. जन्मकल्याणक और जन्मभूमि ___ गर्भकाल पूर्ण होने पर माघ कृष्णा द्वादशी के दिन विश्वयोग में महारानी ने शिशु को जन्म दिया। शीतलनाथ का जन्मस्थान वर्तमान में झारखण्ड प्रान्त में हजारीबाग जिले में है और वर्तमान उस नगर का नाम 'भोंदलगांव' 'भद्रील' है। उसी समय चारों जाति के देव और इन्द्रगण आकर बड़े समारोह के साथ बाल भगवान् को सुमेरू पर्वत पर ले गये। क्षीरसागर के जल से भगवान् का जन्माभिषेक कर बड़ा उत्सव मनाया। उनका नामकरण शीतलनाथ किया गया। 3. पुरुषार्थ की साधना-तपकल्याणक बालक शीतलनाथ दूज के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगे। जब किशोरवय पार कर वे यौवन अवस्था को प्राप्त हुए, उनके पिता ने राज्याभिषेक करके राज्य सौंप दिया और स्वयं मुनि बन गये। (ज.ध.प्रा.इ., पृ. 139) ___महाराज शीतलनाथ एक दिन वन-विहार के लिए गये। वे जब वन में पहुँचे, उस समय कोहरा छाया हुआ था; किन्तु सूर्योदय होते ही कोहरे का पता भी न चला। भगवान् ऐसा विचार कर रहे थे, तभी लौकान्तिक देवों ने आकर भगवान् की वन्दना की और उनके विचारों की सराहना की। प्रबल वैराग्य का निमित पाकर महाराजा -38
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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