________________ भारतीय समाज और संस्कृति के विकास में ऋषभदेव का योगदान - डॉ. श्रीरंजनसूरिदेव, पटना आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव सर्वजन-वन्दनीय महान् संस्कृति पुरुष थे। श्रमण-संस्कृति के तिरेसठ शलाकापुरुषों में उनका सर्वाग्रगण्य स्थान है। दूसरे शब्दों में कहें तो, वह श्रमण-संस्कृति और वैदिक-संस्कृति बनाम समग्र भारतीय संस्कृति के विकासपुरुष हैं। आधुनिक सभ्यता के आदिकाल में जब कर्मभूमि का युग प्रारम्भ हुआ, तब इस युग की सामाजिक सभ्यता और संस्कृति के विकासकर्ता चौदह महापुरुष हुए, जिन्हें 'कुलकर' या 'मनु' कहा गया। उन्होंने क्रमश: तत्कालीन लोकजीवन के लिए विशेष रूप से असि, मसि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या- इन छ: आजीविका के साधनों की व्यवस्था की। इसके अतिरिक्त देश और नगरों के साथ ही, गुण और कर्मों के अनुसार वर्ण एवं जातियों का विभाजन किया। ऋषभदेव के पिता नाभिराय या नाभिराज उक्त चौदह कुलकरों में थे, जिनसे उन्होंने प्रेरणा प्राप्त कर भारतीय सभ्यता और संस्कृति के विकासकार्य को आगे बढ़ाया, जिसे ऐतिहासिक और क्रोश शिलात्मक मूल्य प्राप्त हुआ। इतना ही नहीं, जैनधर्म प्रारम्भ या प्रादुर्भाव भी उन्हीं से माना जाने लगा। वैदिक दृष्टि से भारतीय संस्कृति का प्रारम्भ-काल ऋग्वेद से माना जाता है; किन्तु ऋषभदेव के काल का अनुमान लगाना कठिन है। जैन पुराणकारों ने उनकी कालावधि का निर्णय कोटाकोटि सागरों के प्रमाण से करते हैं। भारतीय संस्कृति के उन्नायक ऋषभदेव ही एक ऐसे तीर्थङ्कर हैं, जिनका जीवन-वृत्त जैन-साहित्य के अलावा वैदिक-साहित्य में भी उपलब्ध है। श्रीमद्भागवतपुराण के पञ्चम स्कन्ध के प्रथम छ: अध्यायों में ऋषभदेव के वंश, जीवन एवं तपश्चरण का वृत्तान्त वर्णित है, जिसकी मुख्य बातों से जैनपुराणों की बातों में पर्याप्त समानान्तरता है। कैवल्य-प्राप्ति के बाद ऋषभदेव ने दक्षिण कर्नाटक तक के अनेक प्रदेशों में अपने महाघ उपदेशों के माध्यम से भारतीय संस्कृति का प्रचार किया। श्रमणबेलगोला जैसे कर्नाटकीय दाक्षिणात्य प्रदेशों में तो जैन संस्कृति ही मानों भारतीय संस्कृति का पर्याय बन गयी है। ऋग्वेद और भागवतपुराण में वर्णित ऋषभदेव एवं वातरशना मुनियों के वृत्त से यह स्पष्ट होता है कि वातरशना मुनियों और ऋषभदेव का भारतीय संस्कृति के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। चरित काव्यों में भी, ऋषभदेव को आर्त्तजनों के लिए करुणावतार और अभिनव कल्पवृक्ष कहा गया है तथा उन्हें जन्म से ही मति, श्रुत एवं अवधिज्ञान से सम्पन्न बताया गया है। ज्ञान और करुणा ही ('पढमें णाणं तओ दया') भारतीय संस्कृति के मूल तत्त्व हैं। और फिर, भारतीय संस्कृति के तहत षट्कर्म के निरूपक भी ऋषभदेव थे। (विशेष द्रष्टव्य : ‘वड्वमाणचरिउ' : विबुध श्रीधर, 2.12)