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________________ षड्द्रव्य और उनकी अर्थक्रिया - डॉ. दामोदर शास्त्री, नई दिल्ली जैन-दर्शन की मान्यता के अनुसार, इस लोक में जो कुछ भी 'सत्' पदार्थ है, उसे 'द्रव्य' के रूप में जाना जाता है। षद्रव्य ___ द्रव्य के अतिरिक्त, संसार में किसी का अस्तित्व नहीं है। द्रव्य को पृथक्-पृथक् विशेष गुणों व उपयोगिता की दृष्टि से प्रमुखतया दो वर्गों में विभाजित किया जाता है— जीव और अजीव। इनमें जीव चेतन है और अजीव अचेतन। अजीव को भी पाँच वर्गों में विभाजित किया गया है- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल। इस प्रकार द्रव्यों की कुल संख्या छ: हो जाती है। प्रत्येक छहों द्रव्य एक दूसरे से अपना पार्थक्य बनाये रखते हैं। ऐसा कभी नहीं होता कि उनमें से एक किसी दूसरे में परिवर्तित हो या अपनी विशेषता को छोड़ दे। यही कारण है कि द्रव्यों की संख्या छ: से न तो कभी कम होती है और न ही छ: से अधिक। प्रत्येक द्रव्य सहभावी गुण और क्रमभावी पर्यायों से समन्वित होता है। उनमें प्रतिक्षण होने वाले उत्पाद-विनाश के मध्य भी उसका मौलिक अस्तित्व निरवच्छिन्न बना रहता है। सभी द्रव्यों में द्रव्यगत सामान्य विशेषता के साथ-साथ, उसकी (दूसरे से पृथक्) मौलिक विशेषता व सार्थकता भी नियत मानी गयी है। प्रत्येक द्रव्य कथञ्चित् परिणामी है, कथञ्चित् नित्य है, कथञ्चित अनित्य है, अर्थात् अनेकान्तात्मक स्वरूप को आत्मसात् किये हुए है। अर्थक्रियाकारित्व स्थूल रूप से अर्थक्रिया का अर्थ है - व्यावहारिक उपयोगिता की दृष्टि से पदार्थ का क्रियान्वित होना। भौतिक पदार्थों में इसे स्पष्टतया समझा जा सकता है। जैसे मिट्टी से घड़े का निर्माण करते हैं, घड़े से पानी लाने व भरने आदि का काम लेते हैं। रूई से धागों का निर्माण करते हैं और धागों को वस्त्र का स्वरूप देते हैं। वस्त्र को पहनने-ओढ़ने व शीत-निवारण आदि के काम में लेते हैं। सोने से विविध आभूषण बनाते हैं और उन्हें विभिन्न अंगों पर धारण करते हैं। इन सब क्रियाओं में, पदार्थ का क्रियान्वित होना स्पष्ट देखा जा सकता है। दार्शनिक क्षेत्र में सामान्यत: 'अर्थक्रिया' से तात्पर्य है - व्यावहारिक उपयोगिता के विषय बनने के क्रम में क्रियान्वित होना। इस दृष्टि से वस्तु का ज्ञान व अनुभूतियों का विषय बनना, प्रयोजनानुसार विविध परिणतियों से युक्तहोना आदि सभी स्थितियाँ 'अर्थक्रिया' में अन्तर्भूत हैं। जैन आचार्यों ने अर्थक्रिया अर्थक्रियाकारित्व - इन दोनों के सम्बन्ध में सूक्ष्म व मौलिक चिन्तन करते हुए इन्हें व्याख्यायित किया है। जैन-दर्शन की मान्यता के अनुसार, अर्थक्रिया व अर्थक्रियाकारित्व को इस प्रकार परिभाषित किया जाता है - अपने मौलिक अस्तित्व, सार्थकता व उपयोगिता को निरन्तर बनाये रखते हुए, देश-कालानुरूप सदृश या विसदृश, सूक्ष्म या स्थूल परिणतियों- रूपान्तरणों के माध्यम से क्रियान्वित होना ही पदार्थ की 'अर्थक्रिया' है, और उस क्रिया से सम्पन्न होते रहने की सहज योग्यता 'अर्थक्रियाकारित्व' है। -185
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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