________________ अपने अगाध ज्ञान का परिचय दिया है। इसी प्रकार अनेक आचार्यों ने भी आयुर्वेद के विभिन्न ग्रन्थों पर ओजपूर्ण एवं विद्वत्तापूर्ण अपनी टीकाएं लिखकर आयुर्वेद के साहित्य की श्रीवृद्धि और आयुर्वेद के विकास में अपने अपूर्व योगदान को रेखांकित किया है। इस प्रकार आयुर्वेद के प्रति या आयुर्वेद के विकास में जैन मनीषियों के योगदान को तीन श्रेणी में रखा जा सकता है- 1. एक उनके द्वारा स्वतन्त्र रूप से ग्रन्थ निर्माण के रूप में, 2. दूसरा अन्य आचार्यों, मनीषियों द्वारा प्रणीत आयुर्वेद के ग्रन्थों की टीका के रूप में और 3. तीसरा विभिन्न विषयों के रचित ग्रन्थों में प्रसंगोपात्त रूप से आयुर्वेद विषयों- सिद्धान्तों का प्रतिपादन के रूप में। ___अत: यह एक निर्विवाद तथ्य है कि आयुर्वेद वाङ्मय के प्रति जैनाचार्यों द्वारा की गयी सेवा उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी अन्य साहित्य के प्रति; किन्तु दुःख इस बात का है कि जैन मनीषियों द्वारा जितने भी वैद्यक ग्रन्थों की रचना की गयी है उसका शतांश भी अभी तक प्रकाश में नहीं आया है। जैनाचार्यों द्वारा लिखित आयुर्वेद के ऐसे ग्रन्थों की संख्या अत्यल्प है जिनका प्रकाशन किया गया है। अब तक जिन ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ है उनमें श्री उग्रादित्याचार्य द्वारा प्रणीत ‘कल्याणकारक' के अतिरिक्त श्री पूज्यपाद स्वामी के नाम से औषध योगों का संकलन 'वैद्यसार' नामक लघु ग्रन्थ है, जिसका सम्पादन एवं अनुवाद पं. सत्यन्धर जैन द्वारा किया गया है। ऐसा लगता है कि यह ग्रन्थ वस्तुतः श्रीपूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित या कथित नहीं है; किन्तु उनके नाम से प्रकाशित किया गया है। उपर्युक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त हर्षकीर्ति सूरि द्वारा विरचित 'योग चिन्तामणि', हस्तिरुचि द्वारा लिखित 'वैद्य बल्लभ', अनन्तदेव सूरिकृत 'रसचिन्तामणि', श्रीकण्ठ सूरिकृत 'हितोपदेश वैद्यक', कविवर हंसराज द्वारा रचित 'हंसराज निदान', कवि विश्राम द्वारा लिखित 'अनुपान मञ्जरी' आदि.ग्रन्थों के प्रकाशित होने की सूचना भी प्राप्त हुई है। ये सभी ग्रन्थ संस्कृत-भाषा में निबद्ध है। पद्यमय हिन्दी-भाषा में भी कवि नैनसुख द्वारा रचित 'वैद्य मनोत्सव' और कविवर मेघमुनि द्वारा विरचित 'मेघ विनोद' के प्रकाशित होने की जानकारी प्राप्त हुई है। कन्नड़-भाषा में भी आयुर्वेद के एक ग्रन्थ 'खगेन्द्रमणि दर्पण' जो श्री मंगराज द्वारा रचित है, का प्रकाशन मद्रास विश्वविद्यालय द्वारा कन्नड़ सीरीज के अन्तर्गत प्रकाशित किया गया था। मुनि यश-कीर्ति द्वारा प्राकृत-अपभ्रंश में रचित 'जगत् सुन्दरी प्रयोगमाला' का प्रकाशन भी किया गया था। इस प्रकार जैन मनीषियों द्वारा रचित आयुर्वेद के ग्रन्थों की संख्या प्रचुर है। आवश्यकता इस बात की है कि आयुर्वेद वाङ्मय की रचना और आयुर्वेद के विकास में उनके योगदान को चिरस्थायी बनाने के प्रति वर्तमान विद्वद् वर्ग अपनी शोधात्मक दृष्टि से उसका समुचित मूल्यांकन करे और विलुप्त या नष्ट हो रही अमूल्य निधि रूप उस विपुल ग्रन्थराशि को कालकवलित होने से बचा ले- यह भी जैन वाङ्मय के प्रति उनकी अमूल्य सेवा होगी। -181