________________ तीर्थङ्करों के पञ्च-कल्याणकों का वैशिष्ट्य-एक विश्लेषण - डॉ. अनिल कुमार जैन, अहमदाबाद भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के क्रम में कालचक्र निरन्तर चलता रहता है। प्रत्येक उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी-काल को छह भागों (आरों) में विभक्त किया गया है। प्रत्येक चौथे भाग (काल) में 63 शलाका (विशिष्ट) पुरुष जन्म लेते हैं, इनमें 24 तीर्थङ्कर भी सम्मिलित हैं। संसार से पार होने के कारण को तीर्थ कहते हैं और जो धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं वे तीर्थङ्कर कहलाते हैं। प्रत्येक तीर्थङ्कर विशिष्ट पुण्यशाली होते हैं। इनके जीवन में पाँच प्रमुख घटनायें घटित होती हैं जिन्हें पञ्च-कल्याणक कहते हैं। इन घटनाओं को देखकर भव्य जीव संसार से पार हो जाते हैं। ये पाँच कल्याणक हैं - (1) गर्भ कल्याणक, (2) जन्म कल्याणक, (3) तप-कल्याणक, (4) ज्ञान-कल्याणक और (5) मोक्ष-कल्याणक। तीर्थङ्कर भगवान् के गर्भ में आने से छह माह पूर्व से लेकर उनके जन्म होने तक निरन्तर रत्नों की वर्षा होती रहती है। यह तीर्थङ्कर के प्रबल पुण्य का ही प्रताप है कि उनके आगमन के साथ ही उनके जन्मस्थान के समस्त लोगों का दुःख-दारिद्र दूर हो जाता है। गर्भ में आने से पर्व माता को सोलह शभ स्वप्न दिखते हैं जो कि तीर्थङ्कर के गर्भ में आने की सूचना देते हैं। जन्म के समय इन्द्र का आसन कम्पायमान होता है। वह सभी देवी-देवताओं के साथ भगवान् का जन्मोत्सव मनाने के लिए उनके जन्मस्थान पर आता है। वह समारोहपूर्वक बालक-तीर्थङ्कर को मेरु पर्वत पर स्थित पाण्डुक शिला पर ले जाता है तथा फिर भगवान् के जन्माभिषेक का कार्य सम्पन्न करता है। तीर्थङ्कर के जन्म के साथ ही दस अतिशय प्रकट होते हैं, वे हैं- अत्यन्त सुन्दर शरीर, अति सगन्धमय शरीर, पसेव रहित शरीर, मल-मूत्र न होना, हित-मित वचन बोलना, अतुल्य बल, दूध के समान सफेद खून, शरीर के 1008 शुभ लक्षण, समचतुरस्र संस्थान (सुडौल शरीर), वज्र-वृषभ नाराच संहनन (हाड़, वेष्टन और कीलों का वज्रमय होना)। प्रत्येक तीर्थङ्कर क्षत्रिय राजा या राजकुमार होते हैं। इनमें से कुछ समय राज्य करने के पश्चात् किसी एक दिन किसी निमित्त को देखकर वे संसार की असारता का चिन्तवन करने लगते हैं और संसार से विरक्त हो जाते हैं। वे जंगल में जाते हैं और जैनेश्वरी दीक्षा लेकर तपस्या आदि चर्या में निमग्न हो जाते हैं। जब वे तप द्वारा चार घातिया कर्मों को नष्ट कर देते हैं तब उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। केवलज्ञान की प्राप्ति के साथ ही तीर्थङ्कर के जन्म के दस अतिशयों सहित कुल 34 अतिशय प्रगट हो जाते हैं जिनमें 14 अतिशय देवकृत होते हैं। इन चौतीस अतिशयों के साथ ही अनन्त चतुष्ट्य- अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्य और अनन्तसुख तथा आठ प्रातिहार्य (अशोक वृक्ष, छविदार सिंहासन, सिर पर तीन छत्र, भामण्डल, दिव्य ध्वनि, पुष्प वृष्टि, चँवर डोलना तथा दुन्दुभि बाजों का बजना) भी प्रगट होजाते हैं। साथ ही तीर्थङ्कर 18 दोषों से रहित भी होते हैं, ये दोष हैं - जन्म, जरा, तृष्णा, क्षुधा, विस्मय, आरत, खेद, रोग, शोक, मद, मोह, भय, निद्रा, चिन्ता और स्वेद आदि। जब तीर्थङ्कर को केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, तभी इन्द्र का सिंहासन कम्पायमान होता है। सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से कुबेर समवसरण की रचना करता है। समवसरण बहुत ही भव्य एवं विशाल होता है।